Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -10

मैं और मेरी जिंदगी -10

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मुझे लगता था कि जैसे मक्खी आकर कभी बदन पर बैठती है, उड़ाने पर उड़ जाती है,कभी ढीठ होकर बार बार आती है तो कभी जम कर बैठ जाती है, ठीक वैसे ही इंसान, इंसान की नज़र, इंसान की सोच भी कभी कभी वैसा ही व्यवहार करती है। मक्खी सा।

मुझे बचपन और किशोरावस्था के ऐसे कई मौक़े याद थे जब मुझे ये अनुभव हुए।

मैं नहीं जानता था कि ये वात्सल्य है, प्यार है,अभिसार है या आक्रमण है। मैं इन्हें जिज्ञासा से देखता, सहता और अनुभव करता था। अब यदि किसी मक्खी को आप सह लें तो वो भला आपको छोड़ेगी? इस कारण कभी कभी असुविधा भी होती थी,और झूठ नहीं बोलूंगा,मज़े भी आ जाते थे।

शिशु अवस्था में तो बच्चों के गाल खींचे ही जाते हैं,चुम्बन भी लिए जाते हैं, सार्वजनिक मौकों पर भी आत्मीयता से प्रियजन परिजन ऐसा करते ही हैं, पर मैं केवल उन अवसरों की बात करूंगा जब ये मक्खियां खुले में सबके सामने नहीं, बल्कि अंधेरे में, अकेले में बैठी।

मैं चौथी क्लास पास करके पांचवीं में आया तब मैंने एक राज्य स्तरीय स्कॉलर शिप की परीक्षा दी। इस परीक्षा का सेंटर किसी दूसरे शहर में आया था।

मेरे पिता के एक मित्र मुझे ये परीक्षा दिलवाने के लिए उस कसबे नुमा छोटे शहर में ले गए। परीक्षा के बाद जब हम वापस लौट रहे थे,तब वे मुझे एक वीरान सी सड़क के किनारे एक पत्थर की बेंच पर बैठा कर बस के बारे में पता करने के लिए और टिकट लेने चले गए। वहां कोई वाहन नहीं था, इसलिए बैग उठा कर मुझे लंबा न चलना पड़े, ये सोच कर वे मुझे वहां बैठा गए।

बैंच के पास ही एक कुआ और उससे सटा हुआ हैंडपंप था। कुछ ही देर में एक युवक वहां आया और कपड़े उतार कर पंप के नीचे नहाने लगा।

वह नहाते समय बार- बार मुझे देखता और मल- मल कर बदन पर साबुन लगाता जाता। उसका बहुत पतले सफ़ेद कपड़े का अंतरवस्त्र भीग जाने के बाद पूरी तरह पारदर्शी हो गया था। मुझे अपनी ओर देखते हुए पाकर वह कुछ उत्तेजित हो गया और पेट पर से हाथ भीतर डाल कर ज़ोर - ज़ोर से साबुन लगाता रहा।

मैं सोचता रहा कि उसका शरीर कितना मैला है जो वह इतना रगड़ रगड़ कर साबुन लगाए ही जा रहा है।

उसने इतनी बार साबुन को रगड़ा कि मैं अगर शुरू से गिनता तो शायद मुझे पूरी सौ तक गिनती का अभ्यास हो जाता।

नहाकर कपड़े बदलता हुआ वह दोबारा अंडरवियर पहनते समय मानो मुझे दिखा रहा हो, कि देखो मेरा तन कितना साफ़ हो गया। वहां के काले बाल तक चमका लिए थे उसने।

थोड़ी ही देर में टिकट लेकर अंकल आ गए और हम चले गए।

मेरी दूर के रिश्ते की एक आंटी छुट्टियों में मुझे अपने साथ ले गईं। गर्मियों के दिन थे। सब लोग छत पर सोते थे।

देर रात इतनी ठंडी हवा चलती कि चादर ओढ़नी पड़ती।

आंटी की बेटी मुझसे तीन- चार साल बड़ी थी। रात को जब सोने लगे तो वो मेरे साथ फिल्मी गीतों की अंत्याक्षरी खेलने के लिए मेरे ही बिस्तर पर आ गई।

हम बहुत देर तक अंत्याक्षरी खेलते रहे। न मैं हारा, न वो हारी। सब लोग गहरी नींद सो चुके थे।

वह उठ कर अपने बिस्तर पर जाने में आलस कर गई। बोली- अब यहीं सो जाती हूं। मैं कुछ न बोला।

मैं सो गया। रात को जैसे ही सर्दी बढ़ी, मेरी आंख खुल गई, पर मैं आंखें बंद किए वैसे ही लेटा रहा।

थोड़ी ही देर में उसने उठ कर चादर खोली और मेरे ऊपर फ़ैला दी। मुझे आराम आ गया।

मैं सोचने लगा कि वो अब या तो अपने बिस्तर पर चली जाएगी, या वहां से अपनी चादर उठा कर लाएगी।

मैं कुछ देर आहट का इंतजार करता रहा। मैंने सोचा शायद उसे सर्दी नहीं लग रही होगी। वैसे ठंडी हवा तो थी।

किन्तु चंद मिनट ही बीते होंगे, वो मेरी ही चादर को खींच कर उसमें आ गई।

मैं एकदम से सकपका कर दूसरी ओर मुंह करके लेटा रहा।

देर काफ़ी हो चुकी थी इसलिए नींद तो आ ही रही थी।

काफ़ी देर तक एक ही करवट से सोते- सोते जब बेचैनी सी हुई तो मैंने करवट बदली। वह मेरी तरफ़ पीठ किए आराम से सो रही थी। शायद उसे नींद आ गई हो।

वो पास के ही एक विद्यालय में नवीं कक्षा की छात्रा थी। पर छुट्टियां हो जाने के बाद स्कूल की यूनिफॉर्म की चिंता किसे होती है। नए सत्र में तो नई ड्रेस मिलने वाली होती ही है।

वो अपनी स्कूल यूनिफॉर्म की चैक की स्कर्ट पहने ही सो रही थी।

थोड़ी देर में जब उसने करवट बदली तो मेरा मुंह उसके सीने के करीब हो गया।

बल्कि उसके कुछ बाल मेरे मुंह पर आने लगे।

मैं ज़रा नीचे की ओर खिसक गया।

मैं ज़रा कच्ची नींद में था, पर वो शायद गहरी नींद में थी।

मेरे नीचे खिसकने से उसने शायद नींद में ही नया संतुलन बनाना चाहा अतः वो और भी ऊपर की ओर खिसक गई।

अब मेरी आंख पूरी तरह खुल गई क्योंकि उसकी इस हरकत से उसकी स्कर्ट का कुछ भाग पलट कर मेरे गालों पर आ गया।

मैं कुछ देर ऐसे ही सोता रहा।

ज़रा देर बाद अपने मुंह पर असुविधा महसूस करते हुए मैंने अपने हाथ से उसका वस्त्र अपने मुंह पर से हटाना चाहा तो अचानक मुझे ऐसा झटका सा लगा, मानो कोई अस्पृश्य वस्तु हाथ में आ गई हो।

उसका नाड़ा मेरे हाथ को छूता हुआ गाल पर आ लगा।

मैं उछल कर उठ बैठा।

मैंने चादर हटा कर पूरी उसके ऊपर ही फ़ैला दी, और खुद बिना ओढ़े दूसरी ओर करवट लेकर सो गया।

सुबह ही आंख खुली।

आंटी चाय का जग और प्याले एक ट्रे में संभाले सीढ़ियों से ऊपर आईं तो बोलीं- बिटिया, तेरी चादर तो वहां तह की हुई रखी रही और तू सुबह - सुबह ठंड में बेचारे प्रबोध से लिपटी पड़ी थी।

हम दोनों ही झेंप गए।

स्कूल में मेरा एक दोस्त मेरे घर के पास ही रहता था। गणतंत्र दिवस पर झंडारोहण के बाद बच्चों के लिए तरह तरह की रेस व स्पर्धाएं होती थीं जिनमें ईनाम भी दिए जाते थे।

एक दिन वो आया तो मुझसे बोला, मैं इस बार "बोरारेस" में भाग लेने वाला हूं, मैंने अपना नाम भी लिखा दिया है।

- वो कैसे होती है? मैंने पूछा। क्योंकि मैं जिस स्कूल से गया था वहां ये रेस नहीं होती थी।

दोस्त मुझसे बड़ा था और एक क्लास आगे भी था। बोला- चल, मैं बताता हूं, हम छत पर चलते हैं।

मैं उसके साथ चला गया। उसके घर की छत पर एक बोरी रखी हुई थी। उसने अपनी चप्पल उतारी और पायजामे के ऊपर से बोरे को पांवों में पहन लिया। फ़िर वो उछल उछल कर आगे बढ़ने लगा।

मुझे देख कर बड़ा मज़ा आया।

मैंने उससे कहा, मैं भी करके देखता हूं।

उसने बोरी मुझे दे दी। मैंने बोरी में पैर डाल कर चलने की कोशिश की, पर मेरा अभ्यास न होने से मैं ऐसा न कर सका।

वो बोला- आ, मैं तुझे सिखाता हूं। तू भी मेरे साथ आजा।

हम दोनों एक ही बोरी में खड़े हो गए। मैं आगे था, वो पीछे।

वो कहने लगा- तू कस कर बोरी को पकड़ लेना लपेट कर, मैं तुझे पकड़ लूंगा।

हमने ऐसा ही किया। मैंने कस कर बोरी को लपेट कर हाथ में पकड़ा और उसने पीछे पीठ पर से लिपट कर मुझे पकड़ लिया। वो बोला- चल, कूद कर आगे चल।

हम दोनों उछलने लगे। उसने मुझे इतना कस कर पकड़ रखा था, मानो हम एक ही शरीर हों। उसने दोनों हाथ मेरी कमर से लेकर पेट पर भींच रखे थे।

एक दो कदम चल कर ही हम दोनों गिर गए। वह ऐसे ही पीठ पर लेटा रहा- बोला, रुक थक गए।

मैंने उससे पूछा - तेरी जेब में गुल्ली है क्या?

वो झटपट उठकर बोला। गुल्ली डंडा तो मैं घर रख कर आ गया।

बोरी में जाने से मेरी निकर पर मिट्टी लग गई थी। उसने अपना पायजामा झाड़ा और मैंने अपनी हाफ पैंट।

मैंने उसके पायजामे की जेब में हाथ डाला। उसकी समझ में नहीं आया कि मैंने उसकी बात पर विश्वास क्यों नहीं किया।

एक बार गांव के ही तालाब में हम कुछ बच्चे नहा रहे थे। हम लोग पहले से ही इस तैयारी से तो नहीं गए थे कि वहां नहाना भी है। बस, छुट्टियां थीं, गर्मियां थीं, तो जब घूमते घूमते थके, एक एक कर पानी में कूदने लगे।

कपड़े किसी के पास नहीं थे। हम लोग गांव में थे ज़रूर, पर ग्रामीण पृष्ठभूमि का हममें से कोई नहीं था कि गले में कोई गमछा या चादर ही हो। हम सब शिक्षित खानदानों से ताल्लुक़ रखते थे।

ये जोख़िम भी नहीं लेना था कि गीले कपड़ों में घर जाएं और घरवालों से डांट खाएं।

सबसे आसान यही लगा कि सब नंगे नहाएं।

थोड़ी झिझक ज़रूर हुई, पर जब मुझसे बड़े बड़े लड़के नंगे नहा रहे थे तो मेरा संकोच भी जाता रहा। दोपहर के वीरान सन्नाटे में वैसे भी कोई तालाब पर नहीं होता था।

तैरना नहीं आने के कारण कुछ लड़के किनारे पर ही थे, जबकि तैरना जानने वाले लड़के आराम से पानी के बीच में जाकर अठखेलियां कर रहे थे।

तैरना सिखाने का लालच देकर कुछ बड़े लड़के गहरे पानी में खड़े हो जाते और अपने पेट के दोनों ओर हमारे पैर करके हमें कहते कि अब पानी में हाथ पैर चलाएं। हम लोग कोशिश भी करते पर कभी कभी हम में से कोई ज़ोर से उछल पड़ता और बड़े लड़के हंस पड़ते तो हमें लगता कि "दाल में कुछ काला है" और हम छिटक कर दूर हो जाते।

हमारे स्कूल में लड़कों से सुना हुआ "शेर और बब्बर शेर" का अंतर भी यहां आकर अच्छी तरह समझ में आया।

एक बार तो एक बड़ी झील में अनजाने में टूटी हुई नाव लेकर हम लोग पतवार के सहारे गहरे पानी में उतर गए। पानी के बीच में पहुंच कर जब पता चला कि नाव टूटी फूटी होने के कारण भीतर पानी आ रहा है, तो सबके होश फाख्ता हो गए। कुछ बच्चे बदहवास होकर दोनों हाथों से पानी बाहर उलीचने लगे और कुछ जल्दी जल्दी चप्पू चला कर नाव को किनारे लाए।

उस दिन हमारे साथ कुछ लड़कियां भी थीं।

हम सबकी शिकायत घाट के धोबियों के माध्यम से हमारे घरों में भी पहुंच गई, और कुछ मित्रों को उनके परिजनों से डांट भी खानी पड़ी।

हमारी बस्ती के एक किनारे एक बड़ी सी गौशाला थी। जिसमें हम कुछ मित्र कभी कभी एक साथ दूध लेने जाया करते थे। एक दिन मैं और मेरा मित्र छुट्टी के दिन वहां से गुज़र रहे थे कि हमें एक परिचित लड़का मिला। लड़का मेरे मित्र को बताने लगा कि वो अपनी गाय को पास की ढाणी में एक सांड के पास ले जा रहा है। उसने कुछ ऐसा शब्द भी बोला कि उसकी गाय हरी हो गई है।

मैं ये बात नहीं समझा। गाय हरी कैसे होती है,और उसे सांड के पास ले जाने का क्या मतलब है, ये सब किसी रहस्य की तरह मेरे दिमाग में घुस गया।

बाद में मेरे मित्र ने मुझे समझाया कि गाय की योनि में सांड अपना गुप्तांग घुसा कर पेशाब जैसा कुछ गाढ़ा पानी छोड़ देता है, जिससे बाद में गाय को बच्चा पैदा होता है। गाय की जब ऐसा करवाने की इच्छा होती है, उसे हरी होना कहते हैं। उस समय वह ये सब करवाने के लिए तैयार होती है।

सांड और बैल में क्या अंतर होता है,ये भी मेरे मित्र ने ही मुझे समझाया। बैल को क्योंकि खेत में मेहनत करनी पड़ती है इसलिए उसके गुप्तांग को गाढ़ा पानी गाय के पेट में छोड़ने के नाकाबिल बना दिया जाता है। फ़िर वो गाय की जगह खेत या गाड़ी को जोतता है, जबकि सांड गाय को।

मैं और मेरा मित्र रात को साथ में पढ़ते। उस समय यदि मित्र मेरे पास आकर चिपटने या मुझे छूने की कोशिश करता या अपने शरीर से कोई खिलवाड़ करता तो मैं मज़ाक में उससे कहता- तू हरा हो रहा है क्या? नई शब्दावलियों को हम ऐसे ही सीखा करते।

मुझे ये भी महसूस होता था कि ऐसी चीज़ें और ऐसी बातें जिन्हें सब पसंद करते हैं, करना चाहते हैं, करते हैं, उन्हें छिपाया क्यों जाता है? क्यों अकारण कुंठा, ग्रंथि या जुगुप्सा बना कर छोड़ा जाता है।

हम जो हैं, जिन क्रियाओं से हैं, जिन पर मरते हैं, उन्हें छिपा किस से रहे हैं? और क्यों?

अपने नए कॉलेज में शुरू के कुछ महीने तो इसी ऊहापोह में निकल गए कि प्रवेश स्थाई होगा या नहीं, लेकिन ये हो जाने के बाद मेरा ध्यान इस बात पर गया कि हमारा कॉलेज शहर में बहुत ही प्रतिष्ठित है, और इसका विद्यार्थी होने मात्र से शहर में एक पहचान मिलती है।

अब विषय भी बहुत सीमित हो गए थे, और नए शिक्षकों का रवैया बिल्कुल अलग था। वे प्रोफेसर्स थे और उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं थी कि आप क्लास में हैं या नहीं, हैं तो केवल शारीरिक रूप से हैं या मानसिक रूप से भी। क्लास में पढ़ाया जा रहा विषय आप सुन रहे हैं, समझ रहे हैं या नहीं।

एक एक क्लास में विद्यार्थियों की संख्या भी बहुत ज़्यादा थी। शिक्षक के लिए अपने सभी छात्रों को पहचान पाना भी संभव नहीं था। वे आते थे, और अपना तैयार व्याख्यान देकर चले जाते थे।

लेकिन अपनी पहचान के लिए सदा सतर्क रहने वाले मेरे जैसे छात्र ने फ़िर एक रास्ता खोज लिया।

हमारे कॉलेज में सांस्कृतिक सप्ताह बहुत ज़ोर शोर से मनाया जाता था, जिसमें कई प्रतियोगिताएं होती थीं। इसके अलावा कुछ कॉलेजों से समय समय पर डिबेट के निमंत्रण भी आते थे।

उन दिनों कॉलेज में रैगिंग भी हुआ करती थी। नए छात्रों को पुराने छात्र तरह तरह से छेड़ा करते थे। इनमें सामान्य शरारतों से लेकर बड़े बड़े कांड तक हो जाया करते थे। जो छात्र हॉस्टल में रहते थे, उन्हें इस विपदा का सामना ज़्यादा करना पड़ता था।

इस संदर्भ में मुझे दो तीन लाभ मिले।

एक तो इस कॉलेज में मुझसे पहले मेरे स्कूल से आए ढेरों सीनियर छात्र ऐसे थे जो स्कूल की मेरी गतिविधियों से परिचित ही थे और उनके लिए मेरा सम्मान करते थे। दूसरे अंतिम वर्ष में मेरा परीक्षा परिणाम बिगड़ जाने से मेरे साथ आए मेरी क्लास के छात्र भी कुछ सॉफ्ट कॉर्नर मुझसे रखते ही थे। यद्यपि मुझे किसी की हमदर्दी अच्छी नहीं लगती थी, और हमदर्दी जताने वाले छात्रों को तो मैं ये जता ही देता था कि विज्ञान विषयों में मेरी रुचि नहीं है।

फ़िर डॉक्टर बनने का सपना, सपना पूरा होने के बाद ही फ़िल्में देखना... इन सब बातों का क्या हश्र होगा, ये मैं भी नहीं जानता था। मैंने इन बातों को पूरी तरह समय और भाग्य के आसरे ही छोड़ दिया था।

मन ही मन मुझे लगता था कि जब कोई चीज़ प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलती है तो शायद बिना प्रयत्न किए मिल जाने का कोई रास्ता भी होगा।

मैं ये बात दूसरों के कई उदाहरण देख सुन कर ही सोचता था, खुद मेरे साथ तो प्रायः ऐसा कभी नहीं हुआ था कि प्रयास करने से कोई लक्ष्य हासिल न हुआ हो।

हमारा कॉलेज विज्ञान का ही कॉलेज था इसलिए इसमें ज़्यादा तर छात्र साइंस को लेकर गंभीर और संजीदा थे। अतः डिबेट या अन्य स्पर्धाओं में कोई कॉम्पिटिशन नहीं था, और जो विद्यार्थी चाहें, उन्हें आसानी से इनमें भाग लेने का मौक़ा मिल जाता था।

एक सिंह द्वार फ़िर सामने था।

यदि किसी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कॉलेज से अनुमति मिल जाती तो दो छात्र दल के रूप में उसमें जाकर भाग लेते। ज़्यादातर सीनियर छात्र शहर से बाहर कॉम्पिटिशन में जाते समय पार्टनर के रूप में मुझे साथ ले जाते। मैं विषय सामग्री तैयार करने में उनकी सहायता कर देता।

इस वर्ष चार पांच प्रतियोगिताओं में मैंने भाग लिया और दो जगह कोई न कोई पुरस्कार भी मुझे मिला। एक कस्बे के महाविद्यालय में तो नकद पुरस्कार भी दिया गया।

एक बार का किस्सा तो बाद में कई दिनों तक रात को नींद में भी आकर डराता रहा। जब ट्रेन से आधी रात को दो बजे हमें घोर सर्दी के मौसम में किसी स्टेशन पर उतरना था, किन्तु कोहरे की वजह से स्टेशन का नाम न दिखाई देने के कारण ट्रेन चल पड़ी और हड़बड़ी में दो छात्र तो उतर गए, पर दो गाड़ी में ही रह गए। यहां तक कि एक के तो जूते भी गाड़ी में ही छूट गए। बाद में अगले स्टेशन पर उतर कर किसी ट्रक से हमारे साथी वापस लौट कर आए। तब जान में जान आई।

हम हिंदी और अंग्रेज़ी डिबेट की टीमों के रूप में भाग लेने के लिए चार छात्र एक साथ जा रहे थे।

ऐसे अनुभवों ने मुझे ये सिखाया कि जब समूह में कहीं जाने के लिए निकलें तो सभी की जेब में पैसे हों। मैं खुद अपने पैसे भी सफ़र में दो तीन जगहों पर अलग अलग बांट कर रखने का अभ्यस्त हो गया।

कॉलेज में एक दिन मेरे एक सीनियर छात्र ने मुझे कहा कि वह मेरी रैगिंग लेना चाहता है।

मुझे आश्चर्य हुआ कि रैगिंग के लिए सीनियर्स इतनी शराफ़त से कब पूछते हैं ! वहां तो किसी को भी, कभी भी डांट फटकार कर घेर लेते हैं और अपनी मनमर्जी चलाने लगते हैं।

- मुर्गा बन जाओ, कपड़े उतारो, पांव छुओ, यहां हाथ लगाओ, गाना गाओ, नाचो, एक दूसरे का चुम्बन लो...अंतहीन सिलसिला।

लेकिन वो सीनियर लड़का शायद मुझे पहले से भी जानता हो, या उसने मुझे कहीं देखा हो, ये सोचकर मैं चुपचाप उसके आदेश का इंतजार करने लगा।

वह बोला, मेरे साथ हॉस्टल में मेरे कमरे में चलना होगा। उसके इस तरह शराफ़त से बोलने के कारण मेरा आधा भय तो पहले ही खत्म हो चुका था, बाक़ी आधा डर भी तब निकल गया जब उसने अपनी क्लास बताते हुए कहा कि जब भी मेरा पीरियड ख़ाली हो, मैं उसे वहां से बुला लूं।

इस नाटकीय रैगिंग में मुझे भी आनंद आने लगा। मैंने उसे कहा- ओके सर !

वैसे सीनियर्स को लड़के "बॉस" बोलते थे पर मैंने जान बूझ कर उसे " सर" कहा।

एक क्लास के बाद ही मैंने उसे उसकी क्लास में से बुला लिया।

कॉलेज चल रहा था पर हम दोनों पिछवाड़े बने हुए होस्टल में चले गए। वो वहीं रहता था।

हॉस्टल में उसका कमरा डबल सीटर था,पर उस समय उसका पार्टनर वहां नहीं था।

रूम में पहुंच कर उसने सबसे पहले मुझसे कहा- कोने में स्टोव रखा है, यदि चाय बनानी आती हो तो बना लो।

कह कर वो बाथरूम की ओर चला गया,जो कुछ ही दूरी पर बने हुए थे। हॉस्टल खाली सा ही था, किन्तु किसी किसी कमरे से लड़कों की बातों की आवाज़, हंसने की आवाज़, या ट्रांजिस्टर से गाने बजने की आवाज़ आ रही थी।

मैं चायपत्ती, चीनी, और मिल्क पाउडर का डिब्बा देखकर चाय बनाने लगा।

वहां कांच के दो तीन गिलास थे, जिन्हें मैंने सुराही के पानी से थोड़ा साफ़ कर लिया।


क्रमशः



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