subrat kumar jena

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करोना कि बीच नौकरी

करोना कि बीच नौकरी

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किसने सोचा था ....

किसने सोचा था जिंदगी में ऐसा भी दिन देखना पड़ेगा, सबकुछ ठीक ठाक चलता फिरता जिंदगी की गाड़ी। अचानक से पटरी पे ठप हो जाएगी। रात में सो कर सुबह जागने पर सबकुछ बदल गया होगा। ऐसा ही हुआ। दूर कहीं दूर पर आतंक का काले बादल मंडरा रहा था। चुप चुपके शैतान अपना पैर फैला रहा था। सबेरा तो हुआ, चिड़िया भी उड़ रहे थे, फूल खिले थे, मौसम सुहाना था रोज की तरह, मगर थम गया था जिंदगी। दूर से उत्पन्न हुआ कीटाणु आके दस्तक दे चुका था हमारी जिंदगी में। हमारी भारत में। प्रलय मचाने के इरादों में।

  कई साल हुआ महामारी का नाम निशान मिट गया था भारत से। कैसे ना मिटता। हम जो लड़ाई शुरू किए थे उसके खिलाफ। अचानक चाइना से लेकर......स्पेन, इटली, अमेरिका, फ्रांस, रुस में कहर मचा रहा था। जिधर भी देखो लाश ही लाश। ये जिंदगी भी क्या जिंदगी है। हां किसी मशहूर ने कहा था "ये जिंदगी तो पानी के बुलबुले जैसे।" पल भर में उत्पन्न और पल भर में खत्म। मगर हम इतने आसानी से कैसे हार मानते। ऐसा होता तो हम श्रेष्ठ जीव कहलाने के लायक ना रहते।

         पल भर में हमारे जैसे कितनों की रोज़मर्रा जिंदगी घर में क़ैद हो गयी। और क्या भी करते। जिंदगी किसे प्यारी नहीं। चाहे वो जानवर हो या इंसान।चारों तरफ सूना सूना।

गाड़ी मोटरों की शोर शराबे से फट पड़ता सड़क पड़ा था निर्जिव मरे हुए सांप की तरह। कोशिश तो बहुत हुआ, जो उनसे हो सकता था। साथ तो हमने दिया जितना हमसे होता। मगर ये लड़ाई इतनी आसान नहीं हैं। दिन पर दिन ये आज बढ़ता चला जा रहा है। मगर हमको ये आशा है एक ना एक दिन हम जरूर इसको हराएंगे।

        बाकी रहा हम कर्मचारी लोगों का। हम लोग तो उसी दिन से पिस गए थे जब मालूम हुआ, ये बीमारी के बारे में। सोचे थे कुछ दिन में सब कुछ संभल जाएगा। जल्द ही फिर जिंदगी हँस पड़ेगी। हम फँसे हुए थे अपनों में। क्या करे क्या ना करे। कर्मछेत्र को जाएं या हाथ पैर बांधे घर में बैठे रहे। मगर घर पे बैठ के फायदा भी क्या। हम तो सिर्फ हमारे लिए नहीं जीते हैं। जो भी जितना भी हम कमातें हैं उसे हमारा परिवार भी चलता है। ऊपर से मकान मालिक का किराया जो देना है। ऐसा नहीं है कि हम लोग अपना अपना घर में रहकर यहां काम करते हैं। कैसे हम सिर्फ हमारे बारे में सोचते। एक तरफ कारोना का डर, दूसरी तरफ सबके पेट के लिये खाने का जुगाड़। हम जाते भी तो किधर जाते।

         इसके अलावा सचेत नागरिक के वास्ते हमारी भी कुछ जिम्मेदारी भी बनती है। जी हमारी कंपनी के निर्देश को पालन करते करते जरूरत लोगों को राशन मोहया कराना। डर तो लगता था आज भी लग रहा है। कहीं हमको ना ये बीमारी हो जाये। जब सड़क पे कोई नहीं दिखता था तब हम ग्राहकों के घर समान भी पहुँचाए है। चाहे वो करोना से ग्रस्त जगह क्यूँ ना हो। फिर भी हम मोर्चा संभाल रखे थे और आगे भी रखेंगे। तखलिफ़ तो हो रही है "जो हम शितानुकूल वातावरण में रहकर अचानक से इतनी गर्मी को झेलना "उससे भी ग्राहकों का ध्यान रखना। सबसे तखलिफ़ तो उस वक़्त होता था बाहर जब चालिस डिग्री सेल्सियस तापमान और महल के अंदर में समान वातावरण। अंदर की हवा बाहर ना जाने के वजह से अंदर को घुसने पर सांस लेने में बहुत ही दिक्कत होती है। क्या करे कुछ घंटों के अंतर में प्रवेश द्वार के पास आ के थोड़ा अच्छे से सांस लेकर फिर काम पे लग जाते हैं। व्यापार ना होना उपर से सरकार की नियम, एकदम से हमको जकड़ रखे थे। ऐसी आशा आशंका में कब नौ घंटे के जगह दस, बारा घंटे काम भी कर लेते हैं मालूम नही चलता।बाहर मज़दूर ना मिलने के वजह से हमको भी कड़ी धूप में गाड़ी में से सामान को उतारना और चढ़ाना भी पड़ता है। कभी कभार तो दिल करता है ,ये सब ना करने को। फिर अगले पल हमारे पैसों के इंतज़ार में परिवार वालों की बात सोच सोच कर, इसको भी कर लेते हैं। और जिस दिन इतना कुछ करने के उपरांत व्यापार महज दस बाढ़ हजार का होता था, उस दिन कुछ अच्छा नहीं लगता था। कैसे भी लगता, जो पूरे दिन का वेतन हम लेते हैं उसी हिसाब से कंपनी का व्यापार तो होना चाहिए ना। मन में ऐसा भी आया है, ऐसे कितने दिन चलेगा। कहीं कंपनी हमारे काम ना बंद कर दे। ऐसे कितने सारे बुरे ख्यालात आते हैं। सारे प्रतिकूल में ना धैर्य हराना हम सिख रहे थे। किसी की भाषा में "वो फूल भी क्या फूल है जो भगवान के शीश पे ना चढ़ सके, वो जिंदगी भी क्या जिंदगी है जो दूसरों कि मदद नाकर सके।" हम अपना कर्तव्य को कैसे भूल जाते। हम तो किसी और कि मदद करते करते हमारी खुद की रोजी रोटी की भी पक्की करते थे।

          जिंदगी में पहेली बार ये बीमारी हमको सीखा गयी। ये जिंदगी जीना इतना आसान नहीं। जरूरत से ज्यादा हमको प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। वर्ना ऐसा हालात पैदा होंगे जब किसी को किसी पे भरोसा नहीं रहेगा। दूर रहे बाप तड़पता है घर को लौटने के लिए, किसी का बेटा ,किसी की बेटी ,सब चाहते हैं घर लौटने के लिए। मगर सबकुछ ठप के कारण ,शुरु हो गया जंग घर पहुंचने का। किसने पैदल तो किसी ने साइकल से, किसी ने चोरी छिपे माल गाड़ी मे तो किसने किसी और प्रकार। घर पहुंचते पहुंचते कितने जान भी चली गयी रास्ते में। और घर पहँचने पर बाप बेटा से, मां बेटी से, भाई बहन से दूर। एक खौफ़ सबको सताता है, कहीं तुम को बीमारी हुई नही तो। पता नहीं कब हालात सुधरेगा ,फिर ठप पड़ी जिंदगी दोबारा मुस्कुराएगा । सबका धंधा पानी शुरु होगा। इसी उम्मीद में सारे....


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