Pratap Sehgal

Others

2.1  

Pratap Sehgal

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क्रास रोड्स

क्रास रोड्स

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                              1.

मेज़ पर सामने रखे मोबाइल की ‘टिऊँ टिऊँ’ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। आदत के मुताबिक अपनी उत्सुकता शान्त करने के लिए मैंने अपने हाथ के अखबार को एक तरफ़ रखा और मोबाइल पर आया सन्देश खोलकर पढ़ने लगा। यह एक आकस्मिक धक्का देने वाला सन्देश था। मोबाइल पर अक्सर बैंक, निवेश करवाने वाली कम्पनियाँ, रियल एस्टेट या फिर नये साल या दीवाली के मौके पर शुभकामनाओं के सन्देश आते हैं। यह जानते हुए भी कि ज़्यादातर आने वाले सन्देश हमारे लिए व्यर्थ होते हैं, हम उन्हें बिना पढ़े अपने मोबाइल पटल से नहीं हटाते, लेकिन यह सन्देश परेशान करने वाला था। मोबाइल के सन्देश पटल पर ‘‘मि.वेंकटरमण पासेस अवे...क्रिमेशन एट 3 पी.एम. एट निगम बोध घाट’’ पढ़कर धक्का इसीलिए लगा कि मैं इस सन्देश की उम्मीद नहीं कर रहा था। सन्देश मेरी एक महिला सहकर्मी संजना कौल ने भेजा था।

मेरा मन था कि मैं क्रिमेशन में शामिल होऊँ, लेकिन दायें पाँव के टखने की हड्डी टूट जाने की वजह से प्लास्टर चढ़ा हुआ था और डॉक्टर ने छह हफ़्तों के लिए पूरे आराम की सख़्त हिदायत दे रखी थी। मन विचलित होने लगा। वेंकटरमण मेरे पुराने सहकर्मी थे, लेकिन उससे पहले वे मेरे शिक्षक भी रहे थे। यूँ अब वो रिटायर्ड ज़िन्दगी जी रहे थे, लेकिन कभी-कभी फोन पर या कॉलेज के किसी समारोह में उनसे बात होती रहती थी। यह बात सभी जानते थे कि उनका मुझ पर बड़ा स्नेह था और मैं उनसे एक आदर भाव वाला रिश्ता रखता था।

                                2.

क्रिमेशन ग्राउंड में मेरी अनुपस्थिति का नोटिस लिया जायेगा। पर मैं क्या करता। कॉलेज में यह भी तो सभी जानते थे न कि मैं लम्बी मेडिकल लीव पर हूँ।

मैंने संजना को फोन मिलाया। दो घण्टी बजने के बाद उधर से मधुर आवाज़ सुनाई दी-‘‘हलो!संजना! मैं अरुण...आपका मैसेज...कुछ पता है यह कैसे...’’

‘‘हाँ, कुछ...कुछ...दरअसल मुझे तो मि. अमरनाथ का फोन आया था, उन्होंने बताया कि ही हैज़ कमिटेड सुसाइड।’’ यह मेरे लिए दूसरा धक्का था। अप्रत्याशित और पहले धक्के से भी तेज़- ‘‘क्या आत्महत्या...लेकिन वे तो ऐसे न थे...आत्महत्या की कोई वजह...’’

‘‘यह तो मुझे पता नहीं...बस इतना पता है कि वे सुबह घूमने निकले और फिर सनराइज़ के साथ ही उनकी कटी हुई बॉडी मिली रेल की पटरी पर...’’

‘‘सो सैड...’’

‘‘पर मिस्टर अमरनाथ शायद कुछ बता सकें’’ उधर से संजना ने कहा।

‘‘ओ. के. करता हूँ उनसे बात’’ कहकर मैंने फोन बन्द कर दिया। मि. अमरनाथ और वेंकटरमण दोनों ही अंग्रेज़ी विभाग में थे। दोनों ने लगभग एक साथ कॉलेज में नौकरी शुरू की थी और साथ-साथ ही सेवा निवृत्त भी हुए थे। दोनों को पढ़ने का खूब शौक था और गप्पबाज़ी का भी। दोनों घनिष्ठ मित्र बने और जीवन पर्यन्त उनमें गहरी छनती रही। मेरे मन में परेशानकुन उत्सुकता तैर रही थी। मैंने मि. अमरनाथ को फोन मिलाया। उधर से ‘हलो’ बहुत धीरे से सुनाई दी।

‘‘मैं अरुण बोल रहा हूँ।’’

‘‘अच्छा...’’ दो-चार क्षण का अन्तराल और फिर आवाज़ थोड़ी तेज़ हुई...

‘‘हाँ पता चला होगा।’’

‘‘जी, इसीलिए...संजना का मैसेज था...पर यह सब हुआ कैसे?’’

‘‘अब कैसे तो पता नहीं, बट ही वाज़ फीलिंग डिस्टर्ब फार दि लास्ट सो मेनी डेज़।’’

‘‘आत्महत्या की कोई तो वजह होगी न।’’

 

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       ‘‘मिस्टर अरुण’’ अमरनाथ ने बात करने की अपनी आदत के मुताबिक एक छोटा सा पाज़ लिया और फिर कहा- ‘‘वजह तो होगी...पर क्या...कई बार होता है न कि बेवजह ही कुछ या फिर आपको जो वजह लगती है, वह दूसरे को नहीं लगती या फिर बेवजह में से कोई वजह ढूँढने की कोशिश की जाती है...यू नो...सब अपना-अपना माइंडसैट है।’’

‘‘जी, कोई सुसाइड नोट?’’ मैंने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की।

‘‘एक नहीं, कई पर्चियाँ मिली हैं उनकी पैंट की जेब से...लगता है वे कई दिनों से तैयारी कर रहे थे’’ अमरनाथ ने कहा।

‘‘क्या लिखा है उन पर्चियों में’’ मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गयी थी।

‘‘आई डोन्ट नो, वो सब उनके बेटे के पास हैं...या शायद पुलिस के पास...आई रीयली डोन्ट नो...अब ही वाज़ डिस्टर्ब...एक्चुअली ही वाज़ नाट हैप्पी विद दि मैरिज ऑफ हिज़ सन...यू नो...इन्टरकास्ट मैरिज तो थी बट...वो समझते थे कि उनकी बहू सुन्दर नहीं है...एकदम ब्लैक...यू नो...’’ अमरनाथ बता रहे थे।

‘‘मि. वेकटरमण एण्ड सो कलर कॉन्शस...पर वे तो जाति, रंग नस्ल इन सब बातों का विरोध करते थे न’’ यह कहने के साथ मेरे सामने स्टाफ रूम में होती गप्पबाज़ी के दृश्य तैरने लगे।

स्टाफ रूम के एक हिस्से में वेंकटरमण, अमरनाथ, शाम मोहन, समनानी और सोहन शर्मा बैठे थे। सोहन शर्मा को छोड़ सभी अंग्रेज़ी विभाग में ही पढ़ाते थे। सोहन शर्मा पढ़ाते तो संस्कृत थे, लेकिन संस्कृत की अपेक्षा उनकी रुचि अंग्रेज़ी, इतिहास आदि दूसरे विषयों में ज़्यादा थी। अंग्रेज़ी भाषा पर वे अतिरिक्त रूप से मुग्ध रहते, इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ा रहे शिक्षकों के साथ उनकी गहरी छनती। अंग्रेज़ी में आयी नयी किताब पढ़ना, किसी शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर लम्बी बहसें करना उनका शगल था। मैं भी कभी-कभी उनकी सोहबत का मज़ा लेता और लाभ भी।आज मि.वेंकटरमण के निधन की खबर पाते ही न जाने कितने-कितने स्मृति-खण्ड फ्रेम-दर-फ्रेम आँखों के सामने नाचने लगे और अन्ततः मन एक स्मृति-खण्ड पर आकर केन्द्रित हो गया। बहस इधर-उधर चक्कर काटती हुई आत्महत्या जैसे गम्भीर मसले पर केन्द्रित हो गयी थी। मुझे अपनी ओर आते देखकर मि. वेंकटरमण ने ‘आओ’ कहकर सीधा प्रश्न मेरी ओर दागा- ‘‘व्हाट डू यू थिंक ऑफ सुसाइड अरुण?’’

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मैं इस सवाल के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। मि. वेंकटरमण से बात करना मुझे अच्छा तो लगता था, लेकिन एक शिष्यत्वनुमा संकोच भी मन को घेर लेता था। वेंकटरमण फर्राटेदार अंग्रेज़ी इतनी तेज़ रफ़्तार के साथ बोलते थे कि जब तक आप पहला शब्द पकड़ें, वे दसवें शब्द पर होते थे। हॉकी की कमेंट्री सुनते हुए मैंने तेज़ हिन्दी या अंग्रेज़ी बोलते कमेंटेटरों को सुना था, लेकिन वेंकटरमण की अंग्रेज़ी बोलने की स्पीड को जस्टीफाई करने के लिए हॉकी या फुटबाल से भी कोई तेज़ रफ़्तार खेल का आविष्कार करने की ज़रूरत थी। उनकी इसी अंग्रेज़ी का मुझ पर अपने छात्र जीवन से रौब ग़ालिब होता। वे भी मुझे स्नेह के साथ हमेशा अंग्रेज़ी में ही एम.ए. करने की सलाह देते और मैं एम.ए. कर बैठा हिन्दी में। वे कुछ वक्त मुझसे खफ़ा भी रहे, लेकिन धीरे-धीरे  सब सामान्य हो गया और अब मैं उन्हीं का सहकर्मी था।

मैंने उनके सामने ही पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा-‘‘नो वे...’’ हालाँकि मैं एक बार गहरे डिप्रेशन का शिकार हो चुका था। मेरे सामने शिमला-यात्रा का स्मृति-खण्ड तेज़ी से तैर गया। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए मैंने शिमला से थोड़ा पहले ही तारादेवी में एक गेस्ट हाउस बुक करवा लिया था। मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बच्चा। पूरा एक महीना वहीं बिताने का कार्यक्रम था लेकिन तीसरे दिन ही एक्पोज़र ने ऐसा पकड़ा कि ठण्ड लगने के साथ ही नीचे से झरना फूट गया। तब मैंने हिल डायरिया का नाम भी नहीं सुना था। अगले दो दिनों में मेरी तबियत इतनी बिगड़ी कि पहाड़ से नीचे उतरना ही ठीक लगा। हिल डायरिया मैदानी आदमी को हो जाये तो फिर पता नहीं वह ठीक होने में कितना वक़्त लेगा। वही मेरे साथ हुआ। इतना भयानक कि मैं धीरे-धीरे गहरे डिप्रेशन में चला गया और मुक्ति के लिए बार-बार आत्महत्या करने की ही सोचने लगा। यहाँ होम्योपैथी काम आयी और कुछ दिनों में ही स्वस्थ होकर आज मैं यह कहने योग्य हो गया था- ‘‘आत्महत्या कायरता है।’’

‘‘व्हाट आर यू टाकिंग, इट नीड्स लाट ऑफ करेज टू कमिट सुसाइड’’ ऐसा शाम मोहन ने कहा।

‘‘नो...नो...आई विल गो विद अरुण’’ वेंकटरमण बोल रहे थे- ‘‘एण्ड आई विल आलसो गो विद जान स्टुअर्ट मिल वैन ही सेज़ दैट सुसाइड विल डिप्राइव अ पर्सन टू मेक फरदर चाएसेस...सो इन माई व्यू टू कमिट सुसाइट शुड बी प्रीवेन्टेड रादर दैन बी ग्लोरीफाईड।’’

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‘‘अरे कौन कमबख्त ज़िन्दा रहना चाहता है आज के ज़माने में...सो मच ऑफ ह्यूमिलेशन वन हैज़ टू फेस...’’  शाम मोहन ने बात आगे बढ़ाई।

‘‘इसका मतलब तो यही हुआ न कि आज ज़िन्दा रहने के लिए कहीं ज़्यादा साहस और हिम्मत की ज़रूरत है’’  अरुण ने कहा।

‘‘मैं तो सोचता हूँ कि लाइफ अगर अनलिवेबल हो जाये तो इट’स बेटर टू एण्ड इट’’ यह हल्का सा स्वर अमरनाथ का था।

‘‘यानी आप कोई बीच का रास्ता निकाल रहे हैं, पर मिस्टर अमरनाथ, किसकी लाइफ कितनी अनलिवेबल हो गयी है...हू वुड डिसाइड दैट’’ अरुण ने कहा।

‘‘यस...यस...दैट इज़ दि पाइंट...एंडयोरेंस लेवल...’’

‘‘सभी के अलग-अलग हैं’’ बात काटते हुए सोहन शर्मा बोले-‘‘जिसकी लाइफ है, उसी को सोचने दो न, उसने उसके साथ क्या बर्ताव करना है।’’

‘‘दैन व्हाट अबाउट सोशल रिस्पान्सिबिलिटी’’ अभी तक खामोश बैठे समनानी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की-‘‘लिसन वैन कॉन्ट आर्गयूज़ दैट ही हू कन्टैम्पलेट्स सुसाइड शुड आस्क हिमसेल्फ वेदर हिज़ एक्शन कैन बी कंसिसटेन्ट विद दि आइडिया ऑफ ह्यूमैनिटि एज़ एन एण्ड इटसेल्फ।’’

‘‘मुझे तो सुसाइड का आइडिया ही एब्सर्ड लगता है’’  अमरनाथ बोले।

‘‘है, क्या हमारी लाइफ ही एब्सर्ड नहीं है?’’ शाम मोहन ने कहा।

अब सोहन शर्मा की बारी थी-‘‘देखिए अब लाइफ एब्सर्ड है, यह मानकर ही लोग यथार्थ को भ्रम में बदल देते हैं या धर्म की शरण लेते हैं  या जंगलों में भाग जाते हैं...यह तो कोई तरीका नहीं है ज़िन्दगी की एब्सर्डिटी को फेस करने का...आई मीन आप लाइफ को पेशेनिटिली गले लगाकर उसे एक मीनिंग भी दे सकते हैं।’’

‘‘व्हाट मीनिंग...माई फुट...अरे जिए जा रहे हैं कि हम मर नहीं सकते...बस...’’ शाम मोहन के स्वर में थोड़ी तुर्शी आ गयी थी। वेंकटरमण बोले-‘‘बट आई थिंक अवर इंडियन फिलासिकी गिव्स अस दि आंसर, यह ज़िन्दगी हमें ईश्वर ने दी है, वही उसे ले सकता है...हमें।

 

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क्या हक है उसे खत्म करने का...आत्महत्या पाप है, यही बात है जो दुनिया को बचाकर रखती है।’’

सोहन शर्मा- ‘‘यह पाप-पुण्य तो बाद की बात है, पहली बात है आदमी की जिजीविषा...अपने अहं का विस्तार देखने की अदम्य ललक...’’

इसी तरह से अपनी-अपनी राय देने के लिए कोई रूसो का, कोई डेविड ह्यूम का, कोई कामू और सार्त्र का तो कोई वेदान्त और गीता का सहारा ले रहा था। इसी बहस के अन्त में वेंकटरमण ने ही तो कहा था, ‘‘टू कमिट सुसाइड, आई विल हैव टू गो मैड।’’

इस जुमले का ध्यान आते ही मैं अपने वर्तमान में लौट आया और खुद से पूछने लगा कि क्या मिस्टर वेंकटरमण सचमुच पागल हो गये थे? क्या मैं अपने डिप्रेशन के दिनों में पागल होता-होता बचा था? इन सवालों के जवाब मेरे पास ही नहीं थे तो किसी और के पास कैसे हो सकते थे। लेकिन यह सवाल बार-बार मेरे मन को मथने लगा कि अगर कार्य-कारण श्रृंखला का कोई सम्बन्ध है तो फिर इस आत्महत्या का कोई कारण तो होना चाहिए।

कारण सोचकर मेरे मन में और ही तरह-तरह की उथल-पुथल होने लगी। किसी घटना-दुर्घटना का कारण जो हम देख या समझ रहे होते हैं, क्या सचमुच वही कारण होता है। दृश्य कारण के पीछे छिपे अदृश्य कारण क्या कभी हमारी पकड़ में आता है? न आये लेकिन एक दृश्य कारण तो पकड़ में आना चाहिए। ज़रूरी भी है...तभी न हम उस कारण को कारण मानकर मन पर अपनी जिज्ञासा के जवाब की चादर डालकर तब तक सन्तुष्ट रहते हैं, जब तक कोई और झकझोर देने वाली घटना-दुर्घटना न हो जाये।

इस सारी ऊहापोह के बीच ही मन बार-बार विचलित होकर मिस्टर वेंकटरमण की जेब से निकली पर्चियों की इबारतों को पढ़ना चाहता था।

दो दिन बाद मैंने फिर अमरनाथ को फोन मिलाया। उधर से वही परिचित हल्की आवाज़-‘‘हलो।’’

‘‘हलो सर, अरुण हेयर।’’

‘‘हाँ, बोलो अरुण।’’

‘‘सर दो दिन से परेशान हूँ मैं...कोई वजह पता चली।’

 

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‘‘हाँ, कुछ-कुछ, दरअसल दो दिन हम पुलिस के चक्कर ही काटते रहे, बड़ी मुश्किल से केस बन्द करवाया है।’’

‘‘वो कैसे?’’

‘‘एक एक्सीडेंट यू नो...मेरा एक दोस्त है डी सी पी...मुश्किल तो हुई...बट हो गया।’’ फिर एक पाज़ के बाद ‘‘हाउ इज़ योर फुट?’’

‘‘मैं तो बेड पर ही हूँ...क्रिमेशन में भी नहीं आ सका।’’

‘‘डज़न्ट मैटर...दरअसल मिस्टर वेंकटरमण...यू नो...थोड़े अल्ट्रा सेंसेटिव पर्सन थे, वो अपने बेटे की शादी से खुश नहीं थे।’’

‘‘हाँ, आपने पहले भी बताया।’’

‘‘पर उनकी बहू को बच्चा होने वाला था न...तो पता नहीं उन्हें क्या डर सता रहा था। कहते थे उसका काम्लैक्शन भी फेयर नहीं होगा।’’

‘‘सो...सो, व्हाट...वो खुद भी कोई बहुत फेयर नहीं थे।’’

‘‘हाँ, पर पता नहीं उनके मन में यह एक डर बुरी तरह से पसर गया था।’’

‘‘इतनी मामूली सी बात आत्महत्या की वजह तो नहीं बन सकती।’’

‘‘यस आई डू एग्री विद यू अरुण? पर कहीं एक-एक करके कई बातें जुड़ती चली जाती हैं...अपनी डाटर-इन-लॉ से भी कुछ परेशान रहते थे...बेटा भी शायद ध्यान नहीं रखता होगा...अब क्या पता किसी के घर में रोज़-रोज़ क्या घट रहा है...यू नो...एक आदमी को मामूली लगने वाली बात दूसरे के लिए बहुत ही इम्पार्टेन्ट हो जाती है...यू नो...लास्ट ईयर हमारे कॉलिज में ही एक लड़की ने सिर्फ़ इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि उसके ब्वाय-फ्रेंड ने उसे गुस्से में कह दिया था ‘मरना है तो मर जा, मेरा पीछा छोड़’ अब यह भी कोई वजह है मरने की...यू नो बस हो जाता है।’’

‘‘पर आपने बताया था कई पर्चियाँ थीं उनकी जेब में।’’

‘‘हाँ थी तो, पर वह सब पूछना मुझे ठीक नहीं लगा, उनका बेटा एकदम चुप है...आई रियली डोन्ट नो...बट जो इम्पार्टेन्ट रीज़न मुझे लगा, वही...’’

‘‘अच्छा नहीं लगा, यह बड़ी ग़लत मिसाल पेश की है उन्होंने।’’

    

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‘‘व्हाट शुड आई से, डिप्रेशन में भी थे वो, यू नो दो-तीन साल से इलाज भी करवा रहे थे...उस इलाज से भी वे तंग आ चुके थे।’’

मैंने भी कुछ दिन सायक्रियाट्रिस्ट के चक्कर काटे थे और उनकी दवाओं ने मुझे करीब-करीब अधमरा सा कर दिया था, उनके प्रति मेरे मन में गहरी वितृष्णा भरी हुई थी। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने कहा- ‘‘यह सायकियाट्रिस्ट भी न...पूछिए मत...पर वे तो कुछ पूजा-पाठ भी करते थे न...’’

‘‘सब करते थे...कहीं भी चैन नहीं...गीता के बड़े भक्त, पर वो भी काम नहीं आयी।’’

‘‘मैं बहुत डिस्टर्ब हूँ।’’

‘‘ओ कम आन अरुण! यू आर यंग, एनर्जेटिक, थिंकिंग माइंड, डोन्ट गैट डिस्टर्ब।’’

‘‘जी...राइट सर, फोन रखता हूँ’’,  कहकर मैंने फोन बन्द कर दिया। प्लास्टर चढ़े पाँव को देखा। पिछले दिन हफ़्तों से मैं बिस्तर पर ही था। जीवन में सक्रियता का स्थान निष्क्रियता ने ले लिया था। शरीर निष्क्रिय हो जाये तो अक्सर मन अतिरिक्त रूप से सक्रिय हो जाता है। वही मेरे साथ हो रहा था, पिछले दिनों की कुछ तक़लीफदेह बातों ने एक बाड़े का रूप ले लिया और उस बाड़े में बन्द घूम रहा था मन। कितनी ज़िल्लत, अपमान झेलना पड़ता था मुझे, जब मैं वो सब करते हुए पकड़ा गया, जो करते हुए मुझे पकड़ा नहीं जाना चाहिए था। बाड़े में घूमती बातें किरचों की तरह चुभ रही थीं। अन्तश्चेतना के गह्वर तक को काटती हुईं। मिस्टर वेंकटरमण की आत्महत्या ने मेरे सामने डिप्रेशन के द्वार फिर से खोल दिये थे। मैं फिर एक बार डिप्रेशन की चपेट में आ रहा था। मिस्टर वेंकटरमण ने ठीक किया या ग़लत, इस सवाल से ज़्यादा मुझे यह बातें परेशान कर रही थीं कि यहाँ से मेरे पाँव किस ओर उठेंगे और उन पर्चियों की इबारतें क्या थीं? उन्हीं से खुल सकता था उनकी आत्महत्या का रहस्य। तो क्या मैं खुद आत्महत्या करने की कोई वजह गढ़ रहा था? मैंने चाहा उनके बेटे से बात करूँ लेकिन आशंकित करने वाला कोई अदृश्य हाथ मुझे रोकता था। वह हाथ रोकता रहा और मैंने फोन मिलाकर बिना बात किये काट दिया।

तभी मन के किसी कोने से एक और महीन सी रेखा शक़्ल अख़्तियार करने लगी। दो स्थितियाँ कभी-कभी एक सी नहीं हो सकतीं...तब मैं मिस्टर वेंकटरमण के हालात को अपने पर क्यों ओढ़ रहा हूँ...मुझे तो अपना जीवन जीना है, अपनी तरह से जीना है। अपमान, ज़िल्लत तो।

                             

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मन की स्थितियाँ होती हैं, कभी ओढ़ी हुईं, कभी गढ़ी हुईं...अब्सोल्यूट टर्म्स में वे स्थितियाँ क्या हैं? आज से दस-बीस या पचास बरस बाद ही उनका कोई महत्व भी होगा? तब क्यों बनूँ हाइपर सेंसेटिव, जीवन तो जीने के लिए है। जीने के लिए बहुत कारण हैं मेरे पास। मरने के लिए उनसे कोई बड़ा कारण होना चाहिए। सोचते-सोचते मैं दार्शनिकता के खोल में घुसने लगा। क्या जीवन का अर्थ मृत्यु है? जीवन तो विकास है...मृत्यु जीवन कैसे हो सकती है...तो क्या मृत्यु एक विराम है, अर्द्धविराम या पूर्ण विराम। सभी पदार्थों का विखण्डित हो जाना, उनका फिर किसी रूपाकार में परिवर्तित हो जाना, यही तो है विकास। मृत्यु का विकास तो हो ही नहीं सकता। विकास तो जीवन का ही है। मैं हूँ, जीवन है। मैं नहीं हूँ, तब भी जीवन है। तब मैं हूँ या नहीं? यह प्रश्न ही निरर्थक हो जाता है। तब क्या आत्महन्ता और अन्यों में कोई अन्तर नहीं? आत्महन्ता होना साहस है तो फिर सभी साहसी क्यों न बनें? तब जीवन? तब यह समाज? तब मैं?

मुझे अपने सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे। अपने लिए ही नहीं तो दूसरों के सवालों के जवाब में कैसे तैयार कर सकता हूँ, लेकिन बार-बार मन के किसी कोने से मुझे यही सुनाई देता है कि आत्महत्या संघर्षों से मुक्ति का आसान रास्ता है। संघर्षों का सामना न कर पाना कायरता है...तब आत्महत्या क्या है? शायद वो कायरता का ही शिखर-बिन्दु है। अपमान, ज़लालत कहीं न कहीं, किसी न किसी शक़्ल में, सबका इनसे सामना होता है। इसके बावजूद लड़ना, संघर्ष करना, जीवन जीने के लिए कहीं ज़्यादा साहस की ज़रूरत है,। बजाय मरने के। इसलिए अपने मन में बार-बार आत्महत्या करने का विचार आने के बावजूद मैंने फिलहाल ज़िन्दा रहने का ही फैसला किया है- टू मेक फर्दर चाएसेस.

 

 

 


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