हमारे मामाजी
हमारे मामाजी


वह सारी बातें जो मन मानस में घुमड़ती हैं, कहीं ना कहीं उन दशकों से अपना तारतम्य मिला जाती हैं, जिन दशकों को आपने जिया था। मेरी कहानियां उन दशकों को प्रतिरूपित करती हैं, जो हमने जिए थे। सामाजिक प्रतिबद्धता उन दिनों प्रबल होती थी। सामाजिक दायरों का निर्वहन हमारी मौलिक सोच में गुथी रहती थी। प्रेम प्रसंग हो अथवा कोई भी वैयक्तिक समस्या, सामाजिक व्यवस्था हमेशा हमारे आड़े आ जाया करती। विद्रोह के स्वर अपने अंदर रह सामाजिक व्यवस्थाओं में कुत्सित भावनाएं हमेशा कुंठित हो जाया करती थी। प्रस्तुत कहानी उन व्यवस्थाओं को लेकर चलती हुई एक मनोदशा का विवरण मात्र है।सत्तर और अस्सी तक के दो दशक ऐसे थे,जब आधुनिकता का प्रवेश हो रहा था और परंपराएं अपना अस्तित्व बचाने में संघर्षरत थीं। परंपराओं पर कुठाराघात आज भी उसी तरह जारी है,पर इतनी बड़ी जनसंख्या में, यह विनाश इतना आसान तो नहीं। यह वो समय था जब सम्मान आंखों में बसता था, और अनादर मन के किसी कोने में अपना मुंह छुपाता था। मजाल कहाँ होती थी कि भावों तक में अनादर को परिलक्षित होने दें।
एक चेहरा जो आज तक मन के एक कोने में अपनी जगह बनाये हुए है वो है हमारे किराएदार श्री काली पद मजूमदार का चेहरा। उम्र बहुत ज्यादा थी उनकी, तकरीबन 65 वर्ष। दन्त पंक्तियों को उम्र अपने जबड़ों में लील चुकी थी। मेरे शहर के पास,तकरीबन 45 किलोमीटर की दूरी पर उनका पुश्तैनी गांव हुआ करता था, बड़े जमींदार थे, उनकी माँ थीं जिन्हें हम नानी मां के नाम से जानते थे। नानी मां देखने में बहुत खूबसूरत, थोड़ी झुकी सी कमर, लेकिन अभिजात्य उनके मुखड़े, रहन सहन और बातों में दीखता था। भाग्य की विडंबना थी, उनकी एक पुत्री जो न जाने कैसे सांवली हो गई थी और उसपर विडम्बना ये कि उनके दांत बहुत बड़े बड़े। नतीजा यह हुआ कि उनके विवाह की उम्र निकल गई और वो कुंवारी ही रह गई। उन्हें हम लोग मासी मां कहकर बुलाते थे। बस यही तीन लोगों का परिवार था, मेरे मित्र नित्यानंद ने जब आकर कहा कि उसके एक परिचित को मकान चाहिए तो मैं मना नहीं कर सका। किराए की बातें तय हुई और मामाजी नानी मां और मासी मां के साथ घर में रहने आ गये। हम लोगों ने ऊपर वाला हिस्सा उन्हें किराए पर दिया था। बहुत बड़ा घर था। मामाजी नानी मां और मासी मां तीनों बहुत खुश। उन्हें बहुत अच्छा लगता था यह नया खुला खुला घर। सुबह से शाम तक घर की अच्छाइयों के कसीदे पढ़ते थे मामा जी और नानी मां।
मैं सोया भी रहूँ, वो ऊपर से आवाज़ देते,
विशेष,सोये हो क्या,
बिजली आ गई है, पम्प का मोटर चला दो।
मैं उठ जाता और पम्प ऑन कर बोल देता
मामाजी पम्प ऑन है, टंकी भरेगी तो नीचे आकर बन्द कर दीजिएगा
बोलकर में फिर से सोने का प्रयत्न किया करता। मामाजी नीचे आते, नियत समय पर पम्प बन्द करते और मुझे बोलते, उठो,कॉलेज नहीं जाना है क्या।
मैं भुनभुनाता हुआ उठता तब तक बहादुर नाश्ता बनाकर दे देता,और फिर मैं कॉलेज को निकल जाता।
मेरे उस हवेलीनुमा घर की ऊपर की एक बालकनी दूर तक प्रोजेक्टेड थी,तकरीबन सड़क तक। मामाजी उसी बालकनी में कुर्सी लगाए बैठे रहते। घर से कुछ ही दूरी पर, 500 कदम पर वीमेंस कॉलेज था। लड़कियों के आने जाने की सड़क भी वही थी।
विशेष, ऊपर वाले घर में कोई किरायेदार को रख लिए हो क्या। - मित्र हमसे पूछते।
नहीं, मामाजी हैं, उनकी जमींदारी है न पास में, वहां उनकी जान को खतरा था, यहाँ आ गए, ऊपर खाली ही था, हम बोले आपलोग रहिए। किराया भी दे ही देंगे।
हाँ, चलो इसी बहाने घर भी भरा भरा लगेगा।
दिन बिताते गए, दिन महीनों में और महीने कुछ सालों में।
हर शाम मामाजी हम सभी 4 5 दोस्तों को चौक पर लेकर जाते और हमें समोसे खिलाते। समोसों को वहां हम उन दिनों सिंघाड़ा कहते थे। खुद कुछ नहीं खाते पर हमसबों को जिद कर खिलाते।
बातों बातों में हमें मालूम हुआ कि मामाजी डिप्टी कलेक्टर थे, किसी मिनिस्टर से विवाद हुआ तो नौकरी को लात मार दी और अपनी जमींदारी संभालने आ गए अपने पुश्तैनी गांव। उनके पिता भी नहीं रहे, समय के साथ उनका साथ छूटा तो माँ और बहन के देखरेख की जिम्मेदारी मामाजी की हो गई।
जिम्मेदारियों का निर्वहन कहें या अपने उत्तरदायित्वों का संज्ञान, मामाजी एकनिष्ठ हो अपनी मां और अनब्याही बहन के प्रति समर्पित थे। समर्पण का यह भाव शरत युगीन साहित्य में , उनके अथवा बंकिम बाबू के उपन्यासों में दृष्टिगोचर होता था हमें। धर्मवीर भारती के कुछ उपन्यासों में भी यह भाव परिलक्षित हुआ।जो भी हो मामाजी हमारे लिए धीरे धीरे अपनों से भी अधिक प्रिय होते चले गए। पोपले मुंह से की गई उनकी हर बातें हम और हमारे मित्र मंडली को बहुत प्रिय थीं।
मामाजी हर दिन सब दोस्तों की खोज खबर लेते रहते। जिसे नहीं देखा मंडली में, तुरत पूछते की वो क्यों नहीं आया,आज।
दोस्तों को भी जब बालकनी में उनका नीचे की ओर झांकता मुखड़ा नजर नहीं आता, वो भी कुशल क्षेम पूछने मामा जी के पास हमें लेकर जाते, इस कमी के अहसास के साथ कि आज उनसे बातें नहीं हुई
हैं।
आज वह अतीत सामने आकर कुछ कह रहा है,मानो उन सारे सुनहरे दिनों की मीठी सी दस्तक दे रहा है।
जिंदादिली का जीवंत उदाहरण थे मामाजी, हर बात को कहीं न कहीं से हास्य का पुट देने में माहिर। एक दिन कुछ दोस्तों ने मुझसे कहा,
विशेष, मामाजी, रोज साढ़े नौ बजे बाहर बाली बालकनी में बैठते हैं क्योंकि वहां से सड़क पर वीमेंस कॉलेज जानी वाली लड़कियां नीचे से गुजरती हैं।अरे, मामाजी तो चांदी काट रहे हैं, बुढापे का ख्याल किये बिना।
मामाजी से पूछते हैं न आज मैंने उत्तर दिया।
आज शाम हम सबके पास मामाजी से पूछने और मामाजी को शर्मिंदा करने का जखीरा तैयार था।
शाम हुई, मामाजी भांप गए कि इन लड़कों के मन में कुछ चल रहा है। तुरत बोले-आज हमलोग कटलेट और रसगुल्ला खाएंगे। उस हम लोग में उनका हम नहीं होता था सिर्फ लोग ही होते थे। हम तो सदा की तरह तैयार। नाश्ता हुआ, उसी बंगाल स्वीट्स में। लेकिन नाश्ते के बाद लड़कों ने बम फोड़ने की तरह सवाल दागा, -मामाजी, रोज आप इस उम्र में भी बालकनी में बैठकर लड़कियों को देखते हैं, बुरा नहीं लगता आपको।
मामाजी ने स्मित मुस्कान के साथ उत्तर दिया,- तुमलोग भी वही समझे जो अनपढ़ समझते। तुमलोग तो ग्रैजुएशन कर पी जी कर रहे हो। उनमें और तुम सबों में क्या अंतर हुआ?
हम भौंचक हो उनका चेहरा निहारते रहे। उन्होंने आगे कहा -- अरे,बेवकूफों,हम लड़की नहीं देखते। हम तो कल्पना करते हैं कि जब ये ऐसी हैं तो इनकी मां कैसी होंगी। द गर्ल्स आर फ़ॉर यू एंड देयर मदर्स आर फ़ॉर मी।
सेंस ऑफ ह्यूमर इतना अधिक था उनमें, की बड़ी बड़ी बातें छोटी लगने लगती थीं।
मेरे मित्र कभी उन्हें खाने पर बुलाते पर वो नहीं जाते।
तुम्हारी नानी मां और मासी मां के हाथों के खाने की आदत पड़ गई है ,बेटा, और कहीं खा ही नही सकता- वह प्यार से समझा देते, और हम मान भी लेते।
हर आठ दस दिनों में नानी मां, मछली खाने बुलातीं, जब उनके तालाब से मछलियां आतीं। ढेर सारी मछलियां, घी से चुपड़ी दाल, बासमती चावल और भी बहुत कुछ।
स्वाद खाने में क्या होता-स्वाद तो उस प्यार का था जो उन हाथों और भावनाओं से सीधे मन में उतरता था।
शिकार करना मामा जी की बहुत बड़ी कमजोरी थी। मुझे पहले मालूम नहीं था कि मामा जी पुराने जमाने के शिकारी हैं। 1 दिन सुबह उठते हैं मामा जी ने कहा, विशेष आज चलना है कुछ शिकार करके आते हैं। मैं भी आनन-फानन में तैयार हो गया। नाव से गंगा पार कर मामा जी अपने बॉडी गार्ड को लिए हुए मुझे साथ लिए दिन भर दियारे की खाक छानते रहे, और करीब 4:00 बजे हम लोग घर लौटे। साथ में थे शिकार किए हुए 5 या 6 पक्षी। आज सोचता हूं पक्षियों को मारने में भी कितना उत्साह हुआ करता था, उन दिनों। मामा जी के जीवन का यह भी एक पहलू था। आज के परिपेक्ष में शिकार से संबंधित कोई भी बात लोगों को नागवार गुजरेगी, पर उन दिनों शिकार एक स्टेटस सिंबल हुआ करता था । बस एक ही बार मैं उनके साथ उस खूनी खेल में शामिल हुआ था।
दिल बहलाने का एक बड़ा जरिया शिकार भी हुआ करता था उस जमाने में। मुझे लगता है अकेलेपन से लड़ते हुए शिकार की बुरी आदत मामा जी को लग चुकी थी । हर 15 दिन में कहीं ना कहीं शिकार पर जाना है। मैं तो नहीं गया पर मेरे मित्र कभी कभार चले जाया करते थे।
दिवस अपनी चाल में चलते रहे और हर दिन मामाजी से हमारा स्नेह बंधन मजबूत होता गया। आज सोचता हूँ तो प्रतीत होता है मामाजी कितने एकाकी से थे, सारी पीड़ाओं को अपने अंदर समेट रखने की अद्भुत क्षमता थी उनमें।
डिप्टी कलेक्टर थे, उनका ऊंचा खानदान भी था। विवाह भी हुआ ,कलकत्ते के प्रसिद्ध बैरिस्टर की मेधावी पुत्री से। वह डिप्टी कलेक्टर और जमींदार के घर भी आई यह सोच कि कलेक्टर साहब के साथ ही रहना है, पर मामाजी का अपनी माँ और बहन के साथ बंधन कुछ ऐसा कि मामाजी ने उन्हें यहाँ रहने की सलाह दी। कलकत्ते की चकाचौंध भरी हाई प्रोफाइल लाइफ को जीने वाली, बैरिस्टर साहब की इकलौती संतान, ग्रामीण वातावरण को न अपना सकी और नतीजा निकला लीगल सेपरेशन। मामाजी अकेले थे अब और अकेले हो गए, माँ और बहन के प्रति एकनिष्ठ समर्पण लिए।
नियति का चक्र कुछ ऐसा चला कि मासी मां गंगा स्नान करने गई थी, अपने नौकर के साथ। नौकर तो वापस आया पर मासी मां वापस नहीं आ सकीं। 2 दिनों के बाद उनकी लाश बरामद हुई।
मासी मां की मृत्यु होते ही मामा जी और नानी मां टूट गए। अब घर सूना लगने लगा। नानी मां का जीवन और एकाकी होता चला गया। यह अकेलापन ज्यादा दिन वह नहीं सह सकीं। अब आये दिन घर में डॉक्टरों का तांता लगा रहता था।
मृत्यु का बुलावा आना ही था, सांसों की गिनती पूरी हुई और नानी मां इस नश्वर संसार को छोड़ दूसरे लोक में चली गई।
12 दिनों से श्राद्ध कर्म के उपरांत, एक सुबह जब मामा जी की आवाज़ नहीं सुनाई दी, मैं घबराकर ऊपर गया, देखा मामा जी कहीं नहीं थे।
मामाजी घर छोड़ कर जा चुके थे, शायद उस शांति की खोज में जो उन्हें जीवन पर्यंत नहीं मिल पाई।