हाथी - 3

हाथी - 3

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मगर एक सुबह बच्ची हमेशा से कुछ ख़ुश-ख़ुश उठी। उसने सपने में कुछ देखा था, मगर किसी तरह याद नहीं कर पाती कि क्या देखा था, और बड़ी देर तक ध्यान से मम्मा की आँखों में देखती रही।

 “तुझे कुछ चाहिए ?” मम्मा ने पूछा।

मगर बच्ची को अचानक अपना सपना याद आ गया और वह फुसफुसाते हुए कहने लगी, जैसे कोई राज़ की बात बता रही हो:

 “मम्मा, क्या मुझे हाथी मिल सकता है ? मगर वो वाला नहीं, जो तस्वीर में बना है, प्लीज़ ! ?”

 “बेशक, मेरी बच्ची, बेशक, मिल सकता है।”

वो स्टडी-रूम में जाती है और पापा से कहती है कि बच्ची को हाथी चाहिए। पापा फ़ौरन कोट और कैप पहनकर बाहर निकल गए। आधे घण्टे बाद वो एक महंगा, ख़ूबसूरत खिलौना लेकर लौटे। ये एक बड़ा, भूरा हाथी थी, जो ख़ुद ही अपना सिर हिलाता है और सूँड हिलाता है; हाथी पर लाल रंग की काठी थी, और काठी पर सुनहरी अंबारी थी, और उसमें तीन छोटे-छोटे आदमी बैठे थे। मगर बच्ची खिलौने की ओर वैसी ही उदासीनता से देखती है, जैसे वह छत और दीवारों को देखती है और मरियल आवाज़ में कहती है:

 “नहीं। ये बिल्कुल वैसा नहीं है। मुझे असली हाथी चाहिए था, मगर यह तो बेजान है।”

 “तू बस, देखती रह, नाद्या,” पापा ने कहा। “अभी हम उसमें चाभी भरेंगे, और वह बिल्कुल ज़िन्दा हाथी जैसा हो जाएगा।”

हाथी में चाभी घुमाई जाती है, और, वह सिर हिलाता है और सूण्ड घुमाता है, पैर आगे रखने लगता है और हौले-हौले मेज़ पर चलता है। बच्ची को यह सब अच्छा नहीं लगता, बल्कि ‘बोरिंग’ भी लगता है, मगर, पापा को बुरा न लगे इसलिए वह फुसफुसा कर कहती है:

 “थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच, प्यारे पापा। मुझे ऐसा लगता है कि और किसी के भी पास इतना दिलचस्प खिलौना नहीं है, बस याद है, तुमने बहुत पहले वादा किया था कि मुझे सर्कस में ले जाकर सचमुच का हाथी दिखाओगे और एक भी बार नहीं ले गए।”

 “मगर, तू सुन, मेरी प्यारी बच्ची, समझने की कोशिश कर, कि ये नामुमकिन है। हाथी बहुत बड़ा होता है, वो छत जितना ऊँचा होता है, वो हमारे कमरों में नहीं समा सकता और फिर, वो मुझे मिलेगा कहाँ ?”

 “पापा, मुझे उतना बड़ा थोड़ी ना चाहिए।।।तुम कम से कम मेरे लिए छोटा-सा ला दो, बस, वह सचमुच का होना चाहिए। ये, कम से कम, इतना, कम से कम हाथी का छोटा सा पिल्ला।”

 “प्यारी बच्ची, मैं तुम्हारे लिए हर चीज़ ख़ुशी-ख़ुशी करने को तैयार हूँ, मगर बस, ये नहीं कर सकता। ये बस, वैसा ही है, जैसे कि तुम मुझसे कहो: “पापा, मेरे लिए आसमान से सूरज लाओ।”

बच्ची उदासी से मुस्कुराती है।

 “पापा, तुम कैसे बेवकूफ़ हो। क्या मुझे मालूम नहीं है कि सूरज को लाना नामुमकिन है, क्योंकि वह जलता रहता है। और चाँद को लाना भी मुमकिन नहीं है। नहीं, मुझे बस, छोटा-सा हाथी मिल जाता सचमुच का।”

और उसने हौले से आँखें बन्द कर लीं और फुसफुसाकर बोली:

 “मैं थक गई, पापा, मुझे माफ़ करो।”

पापा ने अपने बाल पकड़ लिए और अपने स्टडी-रूम में भागे। वहाँ वह कुछ देर तक एक कोने से दूसरे कोने में घूमते रहे। फिर कुछ निर्णय करके आधी पी हुई सिगरेट फर्श पर फेंक दी (जिसके लिए उन्हें हमेशा मम्मा से डाँट पड़ती है) और चिल्लाकर नौकरानी से बोले:

 “ओल्गा ! मेरा कोट और हैट !”

प्रवेश कक्ष में पत्नी प्रकट होती है।

 “तुम कहाँ चले, साशा ?” उसने पूछा।

कोट के बटन बन्द करते हुए वह गहरी-गहरी साँस लेते हैं।

 “माशेन्का, मैं ख़ुद भी नहीं जानता कि कहाँ जाऊँगा।।।बस, ऐसा लगता है, कि आज शाम तक मैं वाक़ई में अपने यहाँ, सचमुच का हाथी ले आऊँगा।”

पत्नी ने चिंता से उसकी ओर देखा।

 “डियर, तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना ? कहीं तुम्हारे सिर में दर्द तो नहीं है ? हो सकता है कि तुम अच्छी तरह सो नहीं पाए ?”

 “मैं बिल्कुल भी नहीं सोया,” उसने गुस्से से जवाब दिया। “मैं देख रहा हूँ, कि तुम यह पूछना चाह रही हो कि कहीं मेरा दिमाग़ तो ख़राब नहीं हो गया है ? अभी तक तो नहीं हुआ। चलता हूँ ! शाम को सब पता चल जाएगा।”

और वह धड़ाम से प्रवेश द्वार बन्द करके गायब हो जाते हैं।


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