नरेन्द्र कुमार

Others

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नरेन्द्र कुमार

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"गुड़हल"

"गुड़हल"

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उस सुबह तुम शायद अपने आँगन के गुड़हल की एक टहनी टूटने से दुखी थी, कितना रोई थी तुम, तुम्हारे चेहरे पे भोर सी ताज़गी की बजाय शाम की ऊंघती लालिमा नज़र आई थी ! अब तुम कहीं और चली गयी हो, तो शायद अब उस गुड़हल से मोह नही रहा, या पता नही ! लेकिन कल शाम किसी ने वो गुड़हल का पेड़ काट दिया, सुबह उठ के देखा तो ऐसा लगा मानो कोई अपना खो दिया हो ! दिल के हरे भरे आँगन में अब एक चटख रंग के संगमरमर का फर्श है और ये डर भी कि अब कुछ भी गिरेगा तो उसे सिर्फ धूल झाड़ के इस्तेमाल करना मुनासिब न रहेगा, वो सुन्दर लेकिन सख्त फर्श पर गिर के टूट जायेगा ! आज तुम्हारे आँगन वाली जगह पे मेरे घर का आँगन है और तुम्हारे गुड़हल की टहनी से मोह की जगह मेरे अथाह प्यार का गुड़हल ! अब तुम चली गयी हो, उस गुड़हल के मोह को प्रेम में तब्दील करके ! अब गुड़हल फर्श के नीचे हो शायद, लेकिन ख्वाब में वो आँगन के ऊपर ही नज़र आता है !


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