Girgit ka jaal

Girgit ka jaal

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                               वह आगे-आगे तेज कदमों से चल रहा था, मैं भी चल रहा था, परन्तु उसके हिसाब से घिसट रहा था। वह कभी-कभी आगे चलता हुआ रूक जाता था, मेरे पास आने पर फिर चल पड़ता था और फिर आगे हो जाता था। मैं भी चाहता था कि उसके साथ-साथ न चलना पड़े। आगे जाकर वह एक माडल शाप पर रूका, तब तक मैं भी पहुंच गया था। उसने एक दृष्टि मुझ पर डाली और शाप से खरीद कर अपने जेब के हवाले किया और मीट की दुकान से चिकन लेकर फिर मेरी तरफ देखा और आश्वस्त हो जाना चाहा कि मैं साथ में हूं ना। मैं थोड़ा अलग हटकर खड़ा हो गया था। मैं अपने आप को उसके साथ हूँ यह प्रदर्शित नहीें करना चाहता था। अब उसने मुझे अपने साथ ही रख लिया था।

                               वह अपने घर पर आकर रूका और मेरे पास होने पर ही उसने बेल बजाई। उसका घर अच्छा-खासा था जिसे वह गरीब-खाना बताकर परिचय दे रहा था। हम लोग दरवाजा खुलने का इन्तजार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद ही एक लड़कीनुमा औरत ने दरवाजा खोला। लड़की ने नमस्कार किया और वापस घर के भीतर, मैं नमस्कार का प्रत्युत्तर भी नहीं दे पाया था। वह मुझे अपने ड्राइंगरूम में बिठाकर खुद भीतर चला गया था।

                               रात के आठ बज चुके थे और मैं नितान्त अपरिचित स्थान पर, एकांकीपन को काटने हेतु ड्राइंगरूम का निरीक्षण कर रहा था। एक दीवान, एक बड़ा सा सोफा सेट, सेन्ट्रल टेबुल, सामने दीवार पर एक अति आधुनिक घड़ी और दीवान से सटी दिवाल पर एक तैल-चित्र। चित्र-भव्य था, अरबी हसीना, शहजादा और साकी, जाम। आखों और पैमाने से शहजादे को पिलाती हसीना। मदहोश करने वाली अदाओं से रचा-बसा चित्र, चैदहवीें शताब्दी का माहौल।

                               उस व्यक्ति से अभी दो चार दिनों पहले ही मुलाकात हुई थी। वह जागीर सिंह था, लोकल-मार्केट पर उसकी दवाइयों की एक छोटी दुकान थी, साथ में अखबार, और पत्रिकायें भी बेचता था। यह एक कस्बे नुमा तहसील थी, जिसकी आबादी करीब 4-5 हजार की रही होगी, पहाड़ की तलहटी में बसी जगह। मैं एक-दो हफ्ता पहले ही आया था , एक स्थानीय को-आपरेटिव बैंक में लिपिक के पद पर । उसका भी बैंक में खाता था। मुझे सुबह-सुबह अखबार पढ़ने की आदत थी और खाली समय में पत्रिका आदि की । इसी कारण उससे मुलाकात हुयी थी। जब उसे पता चला कि मैं नया-नया बैंक में आया हॅू तो उसने काफी घनिष्टता प्रगट की । उसे मैं काम का आदमी लगा था और मुझे नयी जगह पर खाली वक्त टाइम पास करने का जरिया।

               कई दिनों से वह मुझे अपने घर खाने पर आमंत्रित कर रहा था और मैं टाल रहा था। अंजान जगह अंजान लोग मैं काफी संकोच में था। परन्तु आज मैं उसकी बातों में आ गया था। उसने इन्कार करने की गुंजाइश नहीं रखी थी। उसने मुझे अपना मित्र घोषित कर दिया था और उसी प्रकार का व्यवहार करने लगा था।

               जागीर सिंह 50-52 साल का व्यक्ति था। इकहरे बदन का। हल्के चेचक के दाग, बाल नब्बे प्रतिशत सफेद, हल्के खड़े हुये, दाढ़ी-मूॅंछ मुड़ी हुयी परन्तु डेली का क्लीन शेव नहीं था, इसलिये दरदरी दाढ़ी मूंछे हर समय दिखाई पड़ती रहती थी। मैं 20-21 वर्षीय अभी-अभी कालेज से निकला था। अभी एम.एस.सी़. का रिजल्ट भी नहीं आया था। पढा़ई के दरमियान ही नौकरी का फार्म भर दिया था और रिजल्ट आने से पहले ही ज्वाइनिंग आ गई थी। मैं उससे जान-पहचान तक ही सीमित रखना चाहता था परन्तु वह मुझसे समवयस्क जैसी ही बातें किया करता था । स्टाफ में भी मेरे आस-पास की उम्र का एक लड़का था जो निकटवर्ती शहर से अप-डाउन किया करता था। बैंक का ज्यादातर स्टाफ अधेड़ उम्र का था और अप-डाउन में संलग्न था, केवल मैनेजर बैंक के ऊपर रहता था और एकाउन्टेन्ट लोकल में कहीं । उस छोटी जगह में परिचित के नाम पर वह अभी तक वही बन पाया था। अखबार वह सुबह अपने कारिन्दें नारायण से कमरे पर गिरवा देता था और मैंगजीन अपनी पसन्द के हिसाब से खरीद कर ले जाता था। मैंगजीन खरीदने के दौरान ही उसने घनिष्ठता प्रदर्शित करनी शुरू कर दी थी। और वह थोड़ी देर उसकी दुकान में पड़े स्टूल पर बैठ कर टाइम काट लिया करता था।

               वह ड्राइंगरूम में जब आया था उसके हाथ स्नैक की प्लेटों से भरे थे, एक दो चक्कर में उसने सेन्टर टेबुल में पानी, गिलास आदि सभी को व्यवस्थित कर दिया था। फिर वही लड़की आयी थी । शायद नहाकर आयी थी, धुली-धुली सी खूबसूरत अच्छे-नाक नक्श की नवयुवती थी वह। शायद 31-32 वर्षीय होगी, थोड़ी मसीली थी वह। उसने आते ही नमस्कार किया और मुझसे गर्मजोशी से हाथ मिलाया एकदम मार्डन स्टाइल में । जागीर सिंह ने परिचय करवाया, ‘ये मेरी पत्नी शैलजा।‘

               "ओह! मैं तो इन्हें आपकी बेटी समझा था, जब ये दरवाजा खोलने आयी थी।"मेरे मुंह से अनायास निकल गया था ।

               "सभी लोग धोखा खा जाते हैं।" असल में शैला मुझसे काफी छोटी है।‘ ऐसा कहकर गर्वोक्ति से हॅंसा । शैला भी झेपते हुयी मुसकुराई और मैं अपने अचानक निकले वाक्यों पर सकुचाया।

               ‘‘और बच्चे।‘‘ उसके दो बच्चे थे, एक 10 साल का और दूसरा 5 साल का । जो कभी-कभी दुकान में भी दिखाई पड़ जाते थे।

               ‘‘मेरे ही हैं।‘‘ शैलजा ने बताया। ‘दोनों को खिला-पिला कर सुला दिया है। सुबह दोनों को स्कूल जाना है और ऐसे दृश्यों से दूर भी रखते है।‘

               मैं सोचने लगा कैसे दृश्यों से ? कुछ समझ में नहीं आया था । कमरे की रोशनी मध्यम कर दी गयी थी। शैला ने गिलासों में पैग बनाने चालू कर दिये थे और पहले आदमी को फिर मेरे तरफ गिलास बढ़ाया । आदमी ने झट से पकड़ा और मैनें इन्कार किया । वे दोनों आग्रह करते और मैं मना करता । मैं कभी पिया नहीं था ना ही पीना चाहता था । मैं न लेने पर दृढ़ था वे दोनों भी चालू नहीं हो पा रहे थे । ‘मैं नहीं लेता हूँ और मुझे पसन्द भी नहीं हैं ।‘ और वे दोनों पहली बार ऐसा ही होता है कहकर लगातार मनुहार करने में जुटे थे। आदमी से रहा नहीं जाता है और वह एक ही झटके में अपना पूरा पैग चढ़ा जाता है, और नमकीन उठाकर खाने लगता है। उसने औरत को अपना पैग उठाने को कहा और उसने मेरी तरफ इशारा किया था। आदमी और औरत में कुछ इशारे हुये आंखों आंखों में औरत मेरे पास आकर तीन सीट वाले सोफे में आकर बैठ गयी और फिर इसरार करने लगी, जैसे कि प्रेम निवेदन कर रही हो मैं डांवां डोल की स्थिति में आ गया था। शायद औरत भांप गयी थी। उसने मुझे एक हाथ से कन्धे से भींचा और दूसरे हाथ से मेरे मुंह में पूरा पैग उडे़ल दिया था। शराब हलक से होते हुये गले को चीरते हुये पेट में जाकर नृत्य करने लगी थी। एक तो खूबसूरती का स्पर्श और शराब का घूँट मेरे दिल दिमाग और आखों में सरूर पैदा करने लगे थे। लड़की-औरत अप्सरा में बदल गई थी। मैने अप्सरा को अपने हाथों से पिलाने की कोशिश की किन्तु अप्सरा ने खुद अपना जाम उठा लिया था और मुस्कराते हुये सिप करने लगी थी। मौसम आशिकाना हो रहा था। अप्सरा सिप करते करते उठकर अपने आदमी के पास दीवान में बैठ गई, अपने विजय अभियान की सफलता में चूर। अब हम तीनों हल्के-हल्के सिप कर रहे थे और दुनिया दारी, आपसी परिचय की बातें करने लगे थे।

               अब अप्सरा और मैं आपस में मुखातिब थे। आदमी की उपस्थिति का भान नहीं था। औरत के अपने किस्से और मुझसे उसकी पूछ-ताछ रोमानियत के तहत जारी थी, कि आदमी ने अप्सरा को कसकर पकड़ा और उस पर ताबड़तोड़ चुम्मन कर डाले। औरत बुरी तरह सकुचायी, शर्मायी और गरदन झुका कर बोली ‘भाई साहब का तो लिहाज करो, सामने देख रहे हैं।‘


               ‘तो क्या हुआ? अपनी बीबी है। ये तो छड़े हैं। ये देखेंगे और कुढेंगे।‘ मैं असहज हो उठा था और शैला अस्तव्यस्त। आदमी ने अपना गिलास खत्म किया और बोला ‘अपना हसीन माल है।‘ ये तो जलेंगे ही। वातावरण भारी हो गया था और सन्नाटा खिंच गया था। औरत ने सबको स्नैक सर्व करना फिर शुरू कर दिया और व्यस्त होने का अभिनय करने लगी थी। मेरे लिये ये दृश्य अप्रत्याशित, अकल्पनीय और अभूतपूर्व था। तभी घर की बेल ‘चीख उठी थी। दोनों चौक गए थे, "इस समय कौन?" "शायद ठेकेदार साहब होंगे।" "हां शायद वहीं होंगे।"दोनों फुसफुसाए। आदमी उठा, दरवाजा खोलने चला गया।

               "सबके सामने ऐसी हरकतें मुझे पसंद नहीं। मगर क्या करें, अपना आदमी है।"औरत बोली थी। मैंने सहमति में सिर हिलाया था। "मगर तुम्हें अकेले में इसका विरोध करना चाहिये और रूठ जाना चाहिये।" मेंने अपनी सहमति दी।

               जागीर सिंह एक व्यक्ति के साथ दाखिल हुआ। छह फुट का सांवले रंग का दाढ़ी मूंछ और छोटे बाल का प्रभावशाली व्यक्तित्व। दाढ़ी और मूछ प्रुनिंग की हुई थी। उसने मुझसे हाथ मिलाकर औरों से हाय-हैलो की और मुझे अपना परिचय दिया और मेरा लिया। उसका नाम रंजीत सिंह था। चंडीगढ़ का रहने वाला था और यहां पर ठेकेदारी कर रहा था। उसके दो बच्चे हैं जो वहीं चंडीगढ़ में रह रहे हैं। वह यहां अकेला पड़ा है गारे-मिट्टी और सरिया-सिमेंट से उलझता हुआ।

               "अरे! यहां तो महफिल पहले से ही जमी है,आज काफी अच्छा रहेगा।" और उसने अपनी मोटर-साइकिल की चाबी जागीर सिंह पर उछाली, "मेरा, ब्रान्ड ले आओ, और भी कुछ होगा।"उसने खुशी में फरमाया।"यहां पर आकर कम्पनी मिल जाती है एक स्टैंडर्ड की कम्पनी। मुझे तो जब भी मौका मिलता है और इस जगह के पास होता हूॅ तो यहीं आता हूॅ। सिंह साहब बहुत ही अच्छे आदमी हैं।" ऐसा उसने मुझसे मुखातिब होकर कहे थे।

               आदमी रंजीत सिंह की मोटर साइकिल की डिग्गी से एक काफी अच्छे ब्रान्ड की वाइन और तले काजू का पैकेट ले आया था। रंजीत ने काकटेल बनाया और जागीर का गिलास अपने ब्रान्ड से भरा था और दोनों सिप करने लगे थे। रंजीत दढ़ियल ने हम दोनों को भी आने गिलास जल्दी समाप्त करने का अनुरोध किया, जिससे कि उसकी लाई वाइन सबको सर्व की जा सके।

               हम दोनों अपना-अपना एक-दो ही घूंट भरा था कि जागीर और रंजीत ने अपना पेग खतम कर लिया था। औरत और मेरा गिलास बार-बार आग्रह करके खाली करवाये गके। माहौल से पूर्व का तनाव समाप्त हो चुका था और वातावरण फिर रंगीन की ओर अग्रसर हो चुका था। दढ़ियल ने चारों गिलास फिर भर दिये थे। अप्सरा मना करती ही रह गई थी मैं भी ना-नुकर करता रह गया।

दढ़ियल ने सिगरेट का पैकेट निकाला और आदमी को देने के बाद, मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने इन्कार कर दिया। आदमी और दढ़ियल ने फिर आग्रह किया। मैंने फिर असमर्थता व्यक्त की। अप्सरा ने तीर छोड़ा "वह मर्द ही क्या जिसमें कोई ऐब ना हो।" मुझे तो मर्द ही पसंद आते हैं , जैसे रंजीत भाई साहब।" मर्द की परिभाषा सुनकर वह फूला, मुझे सिमटना पड़ा और आदमी ऊर्जाविंत हो उठा। अप्सरा के वाक्यों ने आदमी को उत्प्रेरित किया और उसने अप्सरा को फिर आगोश में लेकर ताबड़ तोड़ कई बोसे उसके गालों में छाप दिये। माहौल फिर अजनबी हो गया था। शायद अप्सरा की आंखें शर्म-हया से गीली और लाल हो गई थी। मुझे लगा वह कुछ अपमानित भी महसूस कर रही थी। वह चुप लगा गई थी और फिर स्नैक आदि सर्व करने में व्यस्त हो गयी थी। माहौल में तनावपूर्ण सन्नाटा व्याप्त हो गया था। आदमी अपने कृत्य पर गर्वोन्वित था कि उसके पास इतनी सुन्दर बीबी है। माहौल में बदलाव की जरूरत थी। आदमी ने खुद एक सिगरेट ली और मुझे आफर की, इस बार मैने मना नहीं किया, शायद मर्द होने का सबूत देने के लिये। और इस घुटे माहौल से अपने को ऊपर करने के इरादे से। आदमी अलग पड़ गया था।

दढ़ियल ने माहौल को ढ़ीला किया जब उसने सबसे कुछ सुनाने को कहा। ठहरे हुये माहौल को गतिशील बनाने को वह तत्पर हुआ था। शुरूआत उसने खुद की। अपने चुनिंदा शायरों की शेरो-शायरी सुनाई। उसने अब आदमी की तरफ देखा और अनुरोध किया, मगर आदमी ने पल्ला झाड़ लिया और फोकस उसने अप्सरा पर डाल दिया। अप्सरा ने एक पुराना प्रसिद्व गीत सुनाया था


‘अपने पिया की मैं तो बनी रे दुलहिनियाॅं

हंसी उड़ाये चाहें सारी दुनियां ।‘.................


माहौल सामान्य की तरफ अग्रसर हो चुका था। अब बारी मेरी थी, मगर इस तरह का माहौल मेरे लिये नितान्त नया था ऊपर से वाइन, सिगरेट का नशा, कुछ भी याद नहीं आ रहा था। अनुरोध जिद में बदलते जा रहे थे। ये आग्रह ऐसे नहीं थे जो हमने पहले पूर्ण न किये हों। आखिर में मुझे एक कवि की दो पंक्तियां याद आईं,


‘अंधड़ में खड़ा गुमसुम अमलताश हो

या बौखलाया गुलमोहर

तुम्हारे माप की पैमाइशे

व्यर्थ है।‘..........................


औरत और आदमी के सर के ऊपर से निकल गई पंक्तियां और उनमें कोई भाव नहीं उभरे थे, अलबत्ता दढ़ियल ने एक झटके में अपना गिलास खाली किया और बोला "अपने पर फिट कर दी कविता।"मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया।

               दढ़ियल और आदमी तीन-तीन पेग पी चुके थे। अप्सरा का एक ही पेग हुआ था और दूसरा पेग वैसे ही भरा पड़ा था, मेरा दूसरा पेग आधा खाली हो चुका था। दढ़ियल ने अपना पेग बनाया और आदमी की तरफ देखा, आदमी ने औरत की तरफ देखा उसने मना किया तो आदमी ने औरत का पेग अपनी तरफ कर लिया और एक सांस में खाली कर दिया। दढ़ियल ने भी अपना आधा किया। मेरी आगे हिम्मत नहीं पड़ रही थी। अप्सरा ने मेरा आधा पेग देखा और बोली ‘यशु । हम दोनों मिलकर इसे खाली करते हैं। और बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये उसने आधा गिलास आधा किया और बाकी बची मेरे मुंह में लगाकर गटका दिया।

               अप्सरा ने खाना लगा दिया था। खाना में पूड़ी कचैड़ी, दो तरह की सब्जी और मीट भी था, चावल अचार आदि। मैने चिकन खाने से मना कर दिया। अब की बार जागीर झल्ला गया था, बोला "यार,तुम ठाकुर हो भी कि नहीं।ठाकुरों का तो ये प्रिय भोजन है।"इसे तो खाना ही पडे़गा। रंजीत ने कहा, ठाकुरों के शौक है, शराब, शबाब और कबाब और तीनों यहांमौजूद हैं।

               नशा सबके सिर चढ़कर बोल रहा था। अप्सरा की उपस्थिति से माहौल में रूमानियत व्याप्त थी। अप्सरा ने मेरी प्रशंसा शुरू कर दी थी। ‘यशु‘ बहुत ही सीधा, सच्चा लड़का है,। आजकल के समय में ऐसे लड़के कहां होते हैं?‘ आदमी को बढ़ाई हजम नहीं हो रही थी। ‘कहीं, ठाकुर भी सीधे होते हैं?‘ कहो, क्या कहना है यशवर्धन सिंह। मैने कोई जवाब नहीं दिया था, सिर्फ आदमी की तरफ घूरा था, मेरी आखों में क्या था, कि आदमी सकपकाया।

               रंजीत सिंह ने एक नया बाण छोड़ा "अच्छा यश, ‘सही-सही बताना किसी के साथ हम-बिस्तर हुये हो।" लड़की या औरत का सुख भोगा है। सेक्स का आनन्द लिया है।"और मीट के दो-चार टुकड़े रख कर चुभलाया। और उसने अपनी आॅखें मेरे ऊपर गड़ा दी थीं। उसकी आंखें एस-रे के तरह भेंद रही थीं।

‘नहीं..................न...........ही..............।‘ मै करीब चीखने वाले अंदाज में बोला था। मैं सभी का निशाना बन रह था जो मेरे भीतर खीज पैदा कर रहा था।

               ‘तो फिर जिन्दगी में किया ही क्या है?‘ जागीर सिंह ने गिलास टेबुल में पटकते हुये, ऊॅचे स्वर में बोला। उसने मेरी जिन्दगी की सार्थकता पर सवाल उठा दिया था।

               ‘असल में‘ इन्हें अक्षत कंुवारी कन्या चाहिये, तभी सेक्स का आन्नद लेंगे।‘ अप्सरा ने अपना मंतव्य जाहिर किया। यह सुनकर सब हो-हो करके हंसने लगे और वह झेंप गया था। मैं मजाक का पात्र बनता जा रहा था, मैंने अपना ध्यान खाने पर लगाया, जिससे वे सब भी मुझे छोड़कर खाने पर जुट सकें।

               हफ्ता-दस दिन हो गये थे, और मेरा मन वहीं पर धरा था। मैं बुलाने का इन्तजार कर रहा था, परन्तु ऐसा कोई संकेत, संदेश नहीं मिल रहा था। एक-दो बार वह दुकान के चक्कर भी लगा आया था परन्तु जागीर सिंह से मुलाकात नहीं हो पायी थी, कभी नारायण बैठा मिलता तो कभी उसका बड़ा लड़का। वह दूर से ही देखकर वापस हो जाता था। शैला, अप्सरा बनकर उसके दिलों दिमाग में छा रही थी। वह अधीर हो रहा था। मुझे लड़की, औरत शैला, अप्सरा के विषय में जानने की उत्सुकता हो रही थी। कैसी है वो? उसके मन में क्या है। मैं उसे गहराई से जानना चाहता था । किसी कोने में एक चिन्गारी दबी हुयी थी, जो रह-रह कर सुलग रही थी। आफिस समय के बाद मुझे शैलजा से मिलने की इच्छा जोर पकड़ती जा रही थी। उसके विषय में कुछ तरह-तरह के ख्याल उमड़-घुमड़ रहे थे, कुछ अच्छे और कुछ खराब।  

               ........हल्का सा धुंधलका हो रहा था और मैं जागीर सिंह के घर के दरवाजे पर खड़ा असमंजस की स्थिति में थोड़ी देर रहा और फिर अपने पर काबू पाते हुये मैंने काल-बेल बजा दी थी। थोड़ी देर तक कोई उत्तर नहीं आया तो मैं लौटने का उद्घृत हो चला था। दरवाजा खुला और शैलजा प्रगट हुयी । इस समय एकदम साफ, सुधरा धुला चेहरा बिना मेकअप के और आश्चर्य मिश्रित भाव उसके ऊपर थे।

                               ‘अरे! आप अकेले?‘

               ......................उसने कोई जबाब नहीं दिया था।

                               ‘कैसे? मालिक तो हैं नहीं।‘ उसका अंजान, अपरिचित भाव उसे खल रहा था। और अपने यहां आने की व्यर्थता का बोध काट रहा था।  

                     ‘वास्तव में, दुकान में भाई साहब थे नही तो मैंनें सोचा घर में होगें?‘ मैंने झूठ बोला था दरअसल मैं दुकान की तरफ गया ही नहीं था।

               ‘अच्छा! आईये। अभी उन्हें बुलवाती हूँ।‘ शैला ने उसे बेमन से आमंत्रित किया था। औरत इस समय अप्सरा नहीं लग रही थी । उसका सारा उत्साह यहां आने का ठंडा पड़ता जा रहा था। फिर भी मैंने अपनी मंशा जाहिर कर दी, ‘आप से नहीं मिल सकता हूँ क्या?‘ हम दोनों ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ रहे थे शैलजा पलटी और बोली ‘आपका अकेले आना ठीक नहीं है। वे गुस्सा होंगें। बुरा मानते है। बैठिये!‘ उसने ऐकल सोफे की तरफ इशारा किया और खुद दीवान पर बैठ गई थी। अपने बैठने से पहले उसने ड्राइंगरूम का वह दरवाजा और खिड़कियां खोल दी थी। जो सड़क की तरफ खुलती थी।

‘देखिये! उन्हें हर समय मुझे खोने का डर सताता रहता है अक्सर अपना अधिकार जमाने का मौका तलाशते रहते हैं। दूसरों के सामने तो खास तौर पर अपना अधिकार प्रगट करते रहतें हैं समय जगह और माहौल को धता बताते हुये।‘ उसका उदासी भरा स्वर गुंज रहा था।

‘हम दोनों में उम्र का जो फर्क है उससे वह सोचते है कि हर अपने बराबर की उम्र वाले से मेरी आशनाई हो जायेगी और मैं फसं जाऊगी और वह हर मामले में जवानों से ज्यादा सक्षम हैं यह सिद्ध करने में लगें रहते है। मैं दूसरों जो कुछ-बोलती चालती हूँ उसमें उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उनकी सहमति रहती है।‘ उसने हाल के दिनों का एक उदाहरण दिया कि ‘पड़ोस के एक लड़के से दोपहर के समय मैं बात कर रही थी। वह काफी दिलचस्प बातें कर रहा था, उसकी बातों में हंसी भी आ रही थी। अचानक दुकान से आ गये थे और हम दोनों को बातें करते, हंसते देख लिया था। उसी समय ही सड़क पर चिल्लाने लगे थे ‘क्या लोफड़ों से बातें कर रही हो।‘ वह शरीफ लड़का तमतमा गया था और दोनों अपमानित होकर अपने-अपने दरवाजे के भीतर। भीतर आकर बुढ़ऊ ने मेरी ये गति की थी ।‘ उसने अपने मार की चोट के दाग दिखाये थे जो अब नीले पड़ गये थे, बांह जांघ और हिप में सब जगह नील से निशान थे । मैं सिहर उठा था। वह रूंवासी थी और मैं करूणा से त्रस्त था मेरा बुखार ठंड़ा पड़ गया था और वह चाय बनाने के लिए कहकर उठ गयी थी।

मैंने जिज्ञासावश इस बेमेल विवाह के विषय में दरयाफ्त की थी। शैलजा ने बताया वे दो बहनें थी। पिता पोर्टर थे किसी तरह मेहनत-मजदूरी कर के हम दोनों बहनों का पेट पालते थे । मां मर चुकी थी। हम दोनों को थोड़ा-बहुत पढ़ाया लिखाया भी था । जागीर सिंह और पिता जी करीब-करीब हम उम्र थे। पिता जी अकसर जागीर सिंह से कर्ज लिया करते थे, आवश्यक खर्च, बीमारी आदि को पूरा करने हेतु। फिर बड़ी बहन की शादी हेतु उन्होंने जागीर सिंह से काफी भारी कर्ज लिया था। वे लौटाने की स्थिति में नहीं थे कर्ज पर ब्याज बढ़ता जा रहा था। एक दिन जागीर सिंह ने ही पिता जी के सामने कहा था कि यदि वह अपनी छोटी बेटी की शादी उससे कर दे तो सारा कर्ज माॅफ हो जायेगा और इस शादी का खर्चा भी वह उठायेगा। जागीर की पत्नी का देहान्त हो चुका था और पहले पत्नी से उसे कोई संतान नहीं थी । पिता जी को भी लगा कि कर्ज समाप्त करने और छोटी बेटी के हाथ पीले करने का यही एक रास्ता बचा है और मैं इस बुढ़ऊ से ब्याह दी गई । ये दो बच्चे है हम दोनों के हैं । शादी हुये ग्यारह साल हो गये है और बुढ़ऊ को अभी तक मेरे भागने का डर सताता रहता है । आपने पूछ कर जख्म ताजा कर दिये और भीतर चली गई थी।‘ शायद अपने आंसुओं का रेला रोकने ।

जागीर सिंह आ गया था। शैलजा ने ही अपने छोटे लड़के को भेज कर बुलवाया था। आते ही उसने कुटिल हंसी के साथ व्यंग्योक्ति की ‘ओह ! आप आये है, जनाब। मेरी गैर हाजिरी में । मेरी बीबी फंसाना चाहते हो।‘

‘नहीं........नहीं मेैं तो पहले दुकान ही गया था, देखा वहां पर आप थे नहीं, सोचा आप घर में होगें तो मैं इधर आ गया।‘ मैंने सफाई पेश की थी। उसने सफाई दरकिनार की और मुंह बिचकाकर बोला ‘आयें है जनाब और फिर खाली हाथ। उसने हंसते हुये रोश प्रगट किया।‘

मैंने खिसियानी हंसी हंसता हुआ अपनी जेब पूरी ढ़ीली कर दी थी और उसे देकर कुछ भी मंगाने का आग्रह किया था । उसने झपट के रूपये लिये और शैला को कुछ निर्देश दिये और खुद ही खरीदने चला गया था। मैं अपराध भाव से अकेला बैठा था। शैला भीतर थी और जागीर बाहर । शैला तभी आयी जब जागीर सामान लेकर आ गया था और उसके पास बैठ गया था।

महफिल सजी पर वह नूर नहीं आ रहा था। वह अन्तरंगता नहीं थी। मुझे माहौल अपराधग्रस्त एवं तनावपूर्ण नजर आ रहा था । आपस में बातें ना के बराबर हो रही थी। ज्यादातर जानकारियां मेरे विषय में जुटाई जा रही थीं। प्लेटों और गिलासों का ही शोर था। उसे लगा कि वह ज्यादा देर रूकने के काबिल नहीं था। इस माहौल को यदि इस समय दढ़ियल आ जाये तो बदल सकता है। उसे दढ़ियल रंजीत सिंह का बेसब्री से इन्तजार था। परन्तु वह अन्त समय तक नहीं आया था। और मैं अन्त समय तक उसी अटपटे अनजानें माहौल से गुजर कर वापस अपने कमरे में आ गया था। उस दिन मैंने पीने-पिलाने खाने-खिलाने में कोई ना-नुकर नहीं की थी। फिर माहौल दोस्ताना नहीं था। शैलजा अप्सरा नहीं लग रही थी, जागीर सिंह भी चहक नहीं रहा था। जागाीर इधर-उधर की बातें कर रहा था, शैलजा चुप थी। महफिल बोझिल होती जा रही थी। वह जल्दी ही उठ गया था। हां जागीर सिंह उसे कमरे तक छोड़ने जरूर आया था।

मैं बैंक में बैठा काम कर रहा था, जागाीर सिंह आया, शायद बैंक में कोई काम होगा। मुझसे उसने इधर-उधर की बातें की और इतने दिनों से ना आने का उलाहना दिया। तुम्हारी भाभी याद कर रही हैं ?, कई बार से तुम्हें बुलाने को कह रही हैं। क्या उस दिन हंसी, मजाक में कही बातों का बुरा तो नहीं मान गयें।‘ मैं निस्पृह उसकी बातें सुनी-अनसुनी कर रहा था और कोई उत्सुकता नहीं दिखाई आने की न कोई आश्वासन। मैं सोच रहा था कि वह जल्दी से मेरे पास हटे क्यों कि स्टाफ उत्सुक नजरों से हमें देखने लगा था। स्टाफ उसके विषय में क्या जानता था? वह कैसा व्यक्ति था? मेरी उससे कैसे पहचान है? स्टाफ से कभी उसके विषय में बात नहीं हुई थी ना ही स्टाफ ने कभी उसका जिक्र किया था। परन्तु था वह सबकी नालेज में।

वह किसी प्रयोजन से ही आया था। उसने फुसफुसाहट में मुझसे इतने रूपये मांगे थे कि आधी सेलरी होती थी, जिसे उसने एक-दो दिन में लौटा देने का वादा किया था। उसने बताया ड्राफ्ट बनवाना है रूपये कम पड़ रहे हैं। उसने पिंड छुड़ाने की बाज से उसे अपने खाते से रूपये निकाल के दिये थे। स्टाफ उसे और मुझे घूर रहा था सम्बन्ध क्या है, कैसे हैं और क्यों हैं? किन्तु स्टाफ ने उस दिन मुझसे कुछ नहीं पूछा था।

हफ्ता भर से ज्यादा हो गया था और जागीर सिंह का कोई अता-पता न था। ना ही क्यों संदेश आया ना उधार रूपये आये थे। अपनी आर्थिक हालात पतली हो रही थी, अपना काम चलना मुश्किल हो रहा था। दैनिक खर्च में, तंगी आ रहा थी। तनख्वाह मिलने में अभी एक पखवाड़ा बाकी था। दो-एक बार में उसके दुकान के चक्कर भी लगा आया था, परन्तु मांगने का संकोच कर रहा था, वह वापस करने का कोई जिक्र भी नहीं कर रहा था। मेरे वहां दुकान पर पहुंचने की उसने बेरूखी प्रदर्शित ही की थी। मैं असमंजस में ही रहता था मांगू या ना मांगू, अपने आप ही देगा, सोचता रहता था। परन्तु उसका कोई भाव ऐसा नहीं लग रहा था कि उसे वापस करने की चिंता है। एक बार हिम्मत करके मैंने मांग लिया, तो उसने कोई ना कोई बहाना बनाकर टाल दिया। अब मैं हर दूसरे-तीसरे दिन उसकी दुकान पर जाता और रिक्यूस्ट करता तो खीज जाता था कहता था, ‘‘दे, देंगे,‘ कहीं भागे जा रहे हैं क्या? मैं अपने आप तुम्हें दे दूंगा। जब मेरे पास होंगे।‘‘ मैं अपना सुना-सुनाया जबाब लेकर वापस आ जाता। इतने दिनों में उसने एक बार भी न घर चलने की बात कहीं ना कुछ खानें-खिलानें। मैं पछता रहा था, उस पर विश्वास करके।

मेरे पास जेब खर्च के भी पैसे समाप्त हो चुके थे। खाने-पीने की भी दिक्कत आने लगी थी। मैं आज फैसला करने की नीयत से उसके पास गया था। उसने कहा, ‘कैसे आये हो?‘ मैंने उसे अपनी समस्या बतलाई और रूपये वापस करने का अनुरोध किया। परन्तु उसका उत्तर बड़ा विचित्र था। ‘अपने पैसे का बड़ा रोना रोते हो, और जो मैंने तुम्हारे ऊपर इतने रूपये-पैसे खर्चा किया, उनका क्या, जाइये सब उसी खर्चे में एडजस्ट हो गये। मैं बहस में उतर आया था, परन्तु गहमा-गहमी से बच रहा था। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि लोग, उसके मेरे साथ क्यों सम्बन्ध हैं, जाने। अब तक इतने दिनों में मुझे ये आभास को चुका था कि लोग उसे अच्छी नजरों से नहीं देखते थे। उसी दरमियान उसका करिंदा-कम-दोस्त नारायण आ गया था। उसने नारायण से कहा कि वह मुझे समझाये। नारायण ने मुझे अलग ले जाकर समझाया था कि वह रूपये तो वापस करेगा ही नहीं और उससे लड़ाई ठीक नहीं है क्योंकि तुम बाहरी व्यक्ति हो, वह स्थानीय व्यक्ति है, लोग उसका ही फेवर करेंगे। तुम नौकरी वाले व्यक्ति हो सबूरी कर जाओ और बदनाम भी हो जाओगे। उसने यह नहीं बताया कि मैं बदनाम कैसे हो जाऊंगा। परन्तु मैं वापस हतोत्साहित आ गया था। महीने के बाकी दिन मैंने अपने सहकर्मी से उधार मांग कर चलाए थे और सैलरी मिलने पर उसे लौटये थे। जागीर सिंह को उधार दिये पैसे मैंने बट्टे-खाते में डाल दिये थंे।

आज मैंने निर्णय लिया था कि अपने कमरे में ही कुछ बनाया जाये। कई दिनों से लगातार होटल का खाते-खाते मन ऊब गया था। मैंने खिचड़ी बनाने का कार्यक्रम बनाया। और दाल-चावल बीन कर भगौंने में करके स्टोव में खिचड़ी चढ़ाकर, ट्रान्जिस्टर से गाने सुन रहा था। ऐसा लगा कि सीढ़ियों से ठक-ठक की आवाजें आ रही थी जैसे कि कोई रहा था। रात के नौ बजे थे, इस समय कौन हो सकता है कमरे का भिड़ा दरवाजा खुला और जागीर सिंह नारायण के साथ हाजिर था। बड़ी शिकायतें उलाहने दिये उसे भूल जाने का मुझे दोष दिया और इतने दिनों से न आने का कारण पूछा । तुम्हारी भाभी पूछती रहती है आदि-आदि। ‘और ये क्या? हम लोगों के होते तुम्हें खाना बनाना पड़ रहा है। वह मर गया है क्या?‘ तुम्हारी भाभी तुम्हें बुला रही है, अभी चलो तुम्हारे लिए कुछ स्पेशल बनाया है।‘ मैंनें अपनी खिचड़ी बन जाने का इशारा किया जिसे उसने स्टोव बन्द कर के उतार दिया । मेरी अध-बनी अध-पकी खिचड़ी को उसी हाल में छोड़ कर मुझे लेकर चल दिया। मैं विस्मृयित, अनिणयित उनके साथ हो लिया । रास्ते में नारायण के इशारा करने पर मुझे ही बोतल का भुगतान करना पड़ा था, और जागीर की ललचाती, और लपकती आंखों को राहत देना प़ड़ा था।


घर पर शैलजा ने एक विरहणी प्रेमिका की तरह उसका स्वागत किया था। तमाम-लानतें-मनालतें शिकवें-शिकायतें, रूठनें का अभिनय और अन्त में इतने दिनों से मैंने दर्शन क्यों नहीं दिये। और शैला ने कहा, ‘तुम तो अकेले भी आ जाते हो, तुम्हारे लिये कोई रोक-टोक तो है नहीं।‘ मुझसे क्या नाराजी थी? अगर आपको मालिक से कोई नाराजी थी तो इसमें मेरी क्या खता थी‘। शैलजा की आंखों में आंसू थे असली या नकली उसे अन्दाजा नहीं हो पा रहा था। परन्तु उस समय मैं अंचभित एवं आतंकित हुआ जब शैला ने मुझे हग करके किस किया था, अकेले में। कहीं कोई देख लेता ?

फिर पीने-पिलाने का दौर चला था और आज शैला अरबी हसीना नजर आ रही थी और मैं अरब देश का सुल्तान । शराब, शबाब और कबाब साथ-साथ चल रहे थे। मेरा पसन्ददीदा खाना बनाया गया था। मैं पूरी तरह से परिपूर्ण, संतुष्ट और शिकायतहीन होकर उसके घर से निकला था। मुझे लगा आज के दिन उसे कुछ अधिक ही प्रेम मिला था और सभी का प्रेमपूर्ण व्यवहार था। आज कुछ ज्यादा ही हो गयी थी, नारायण ने मुझे घर तक छोड़ा था ।

कई दिन निकल गये थे। मैं अप्सरा या अरबी हसीना के खुमार में रह रहा था। उससे मिलने को बेताब भी था, परन्तु उसके पास बिना-बुलाये जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। आज इतवार का दिन-छुट्टी का दिन, सारा दिन खाली, क्या करेंगें? मैंगजीन साथ नहीं दे रही थी या मन नहीं लग रहा था। जागीर सिंह का रूख क्या होगा? उसका नेचर अनप्रिडिक्टेबल था। गिरगिट है। कुछ अनापेक्षित न घटित हो जाये। मैं धूप पर बैठा असमंजस्य की स्थिति में था, अनिर्णय पूरी तरह हावी था। आन्तरिक मंथन चल रहा था कि नारायण आ गया था।

‘आज पिक्चर चलने का प्रोग्राम है सब लोग चलेगें, तम्हें बुलाया है।‘ दोनों यहीं से सिनेमा हाल चलेगें वे लोग घर से सीधे आयेगें।‘ मैं उसके साथ चल पड़ा था, सानिध्य के लालच में । शैला आयी थी अपने पति एवं दोनों बच्चों के साथ मैंने सभ्यतापूर्वक सारी टिकटें खरीदीं और एक साथ सिनेमा हाल में प्रवेश किया था। सभी एक-साथ एक ही रो में बैठे थे, पिक्चर शुरू होने से पहले शोरगुल हो रहा था ।

हमारी सीट के पीछे दो-तीन रो छोड़कर आवाजें आ रही थी। हंसी की, कहकहों की। फिर मेरा नाम पुकारने का आवाजें आने लगी थी। ‘यश, यश अबे! इधर आ, वहां कहां ।‘ मैंने पलटकर देखा तो मेरे पड़ोस के कमरे में रहने वाले दो जे.ई. लड़के सलिल और दीपक मुझे पुकार रहे थे। उनके साथ कपड़े की दुकान मालिक का लड़का राजेन्दर, पुलिस इन्सपेक्टर का लड़का फाहीम, पुनीत चैधरी, जिसके पिता की हार्डवेयर की दुकान थी और तजेन्द्र सरदार जो तहसील में क्लर्क था । वे सभी हम व्यस्क थे 21 से 25 वर्ष की रेंज में। अक्सर उनसे मुलाकातें हो जाती थीं। उसने जान-पहचान भी सलिल के माध्यम से हुयी थी।

मैं अपनी सीट से उठकर उनसे मिलने गया तो उन लोगों ने अपने पास ही बीच की सीट में बैठा लिया था। मैंने उन्हें बताया कि मैं अकेले ही पिक्चर देखने आया था। हांलाकि सभी लड़के खिचाई करने में व्यस्त थे।

‘अबे ! माल को अकेले-अकेले तड़ रहे थे। सौंदर्यपान कर रहे थे क्या जान-पहचान है? मेरी जान पहचान भी कराओ, आदि-आदि।‘ मैंने पूरी तरह इन्कार किया था । ‘मैं कतई नहीं जानता । मैं तो पहले ही आ गया था, ये लोग तो मेरे बाद आयें है।‘

हम सब मिलकर साथ हो गये थे। कमेन्ट पास किये जा रहे थे हाय, हल्ला कर रहे थे। जागीर सिंह और शैलजा को लेकर, विशेष रूप से लोकल के लड़के राजेन्दर, तजेन्दर, फाहीम और पुनीत।

‘बुढ़ी घोड़ी लाल लगाम्।‘

‘हूर के साथ लंगूर‘

‘चमकनो‘

‘साहब बीबी और गुलाम‘


ये चिल्लाहट पिक्चर शुरू होने से पहले, इन्टरवल में और पिक्चर समाप्त के बाद। जब जागीर का परिवार उठा तब भी फब्तियां जारी थी। मैं इन सबसे बच रहा था। मुझे ये सब अच्छा नहीं लग रहा था । मगर इन सबको नियंत्रित करने की क्षमता मेरे पास नहीं थी। और न ही मैं ही प्रतिरोध करने में सक्षम था। वे इस स्तर तक किसी को चिढ़ायेंगें मैं अभिग्य था।

बैंक से आकर सुस्ता रहा था और इस उधेड़बुन में था कि क्या किया जाएं । खाना होटल में खाया जाये या फिर खुद बनाया जायें । तभी गुप्ता जी बैंक के एकाउन्टेट ने मेरे कमरे में झाॅंका मैंने झट से उन्हें आदर सहित बुलाया। गुप्ता जी गम्भीर और चिन्तामग्न लग रहे थे। मैंने सोचा कोई समस्या उनकी अपनी है जो मुझसे शेयर करना चाहते हैं । गुप्ता जी मुझसे काफी प्यार से व्यवहार करते थे जैसे छोटे भाई की तरह । बैंक के काम काज और ग्राहको से उनका व्यवहार काफी शान्त और शालीन था। वह थोड़ी देर शान्त बैठे रहे शायद सोच रहे थे, कहाॅं से शुरू किया जाये ।

‘कुछ खास बात है।‘ गुप्ता जी मुझे आश्चर्य हुआ था । क्योंकि गुप्ता जी कभी मेरे कमरे में नहीं आये थे। वे घरेलू व्यक्ति थे और बैंक से सीधे अपने घर ही जाते थे। उनका घर, जागीर सिंह के घर के आस-पास कहीं था कई बार वेे अपने घर बुला चुके थे। परन्तु मेरा जाना संकोचवश नहीं हो पाया था। गुप्ता जी काफी बैंक के काम से बिजी रहते थे रोज के दिनों में । एक इतवार साप्ताहिक अवकाश मिलता था जो अपने परिवार के साथ रहते थे। अगर इतवार को मैं गया तो उनका और मेरा दोनों का साप्ताहिक अवकाश नष्ट होने की आशंका थी। क्योंकि उनका उपदेश सदाचार का, सम्भल के रहने का, जो झेलना पड़ता वो कई दिनों के लिए काफी होता और मुझे हर हाल में आश्वासन देना पड़ता।

‘कल क्या हुआ था, सिनेमा हाल में। किसके साथ थे? वहां क्या किया था? एक साथ कई सवाल दाग दिये थे।‘

‘कुछ नहीं, मैं अकेले गया था और कुछ भी तो नहीं हुआ था। ‘

‘अच्छा ! जागीर सिंह तुम्हारी शिकायत कर रहा था कि तुमने उसकी बीबी को छेड़ा था और वह तुम्हारी एफ.आई.आर. करने जा रहा था। मैंने उसे रोका है। बात करके उसे बताना है‘ मैंने गुप्ता जी को जो भी घटित हुआ था वह सब बताया और अपनी किसी भी प्रकार की भूमिका से इन्कार किया । वास्तव में मुझे ताज्जुब हो रहा था, जब मैं छेड़ने की किसी भूमिका में नहीं था तो मेरे विरूद्ध क्यों ? गुप्ता जी ने यह भी बताया कि उसने सिर्फ तुम्हारे विरूद्ध एफ.आई.आर. की बात कही है।

‘देख लो, मिल लो, और अपनी स्थिति स्पष्ट कर दो, और किसी तरह उसे मनाओं कि वह ऐसा न करे। क्योकि अगर उसने एफ.आई.आर. कर दी तो तुम्हारी नौकरी जा सकती है।‘ फिर काफी देर तक वह ऊंच , नीच, समाज-परिवार और यहाॅं के माहौल के विषय में समझाते रहे और इनसे दूर रहने की सलाह देते रहे। ‘तुम यहां के लिए नये हो, अपने काम से काम रखो और अपने भविष्य की तरफ ध्यान दो अपनी उन्नति करो।‘

गुप्ता जी चले गये थे और मुझे छोड़ गये थे। मैं क्रोध गुस्से और अपमान से त्रस्त था। दुखी हो रहा था कि मुझे अनहक दण्ड मिलने वाला था। खाना-पीना नष्ट हो गया था और मैं सारी रात अपयश का बोझ महसूस कर रहा था।

सुबह होते ही मैं जागीर सिंह से भिड़ने का मूड बना चुका था मैं निकल पड़ा था उससे मिलने या लड़ने दुकान में । दुकान में जागीर सिंह और नारायण दोनों थे । मैं उबल पड़ा था । मगर जागीर सिंह ने कोई उत्तेजना नहीं दिखाई थी।

‘तुमने गुप्ता जी से क्या कहा, सुना है मेरी एफ.आई.आर. करवा रहे हो। क्यों? मैंने क्या किया? जिन्होनें कुछ कहा सुना उनके विरूद्ध क्यों नहीं करते। उनसे डरते हो । वे लोकल के हैं ना ? मैंने तो कुछ कहा भी नहीं । मैं तो तुम्हारे साथ पिक्चर गया था। खर्चा भी मैंने किया और मुझे ही दोषी ठहरा रहे हो ।‘ मेरी आवाज तीखी और तल्ख थी।

‘तुम उनके साथ थे, और साथ में हंस भी रहे थे। हम लोगों का साथ छोड़कर तुम लोफड़ों के गैंग में शामिल हो गये थे।‘

‘नहीं मैं उनके साथ नहीं था । मैंने कुछ नहीं कहा । जो कह रहे थे, उनके विरूद्ध क्यों नहीं कुछ करते । उनके विरूद्ध करो एफ.आई.आर.।‘ मैंने उसे ललकारा था।

‘ये मेरी इच्छा‘। मैं जिसकी चाहें शिकायत करूॅंगा जिसे चाहें फंसाऊगा । वे तुम्हारे यार दोस्त थे ना? अब वे ही तुम्हें बचायेगें । अच्छे खासे हमारे साथ बैठे थे, हम शरीफों का साथ छोड़कर चले गये लोफड़ों के पास, हमारा मजाक उड़ाने, उपहास करने, अब परिणाम भुगतों।‘ मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था और कोई अनहोनी घटित हो सकती थी। नारायण ने भांप लिया था, वह दुकान से उठकर मेरे पास आया और अलग ले गया समझानें। उसने मुझे सायं तक मामला टालने का अनुरोध किया कि वह सिंह साहब को समझायेगां। सायं तक वह हम दोनों का समझौता करवा देगा, और सब कुछ ठीक हो जायेगा।

बैंक में किसी को कुछ पता नहीं था, इस कारण कोई चख-चख नहीं हो रही थी। मगर मेरा मन बैचेनी से शाम होने का इन्तजार कर रहा था। मुझे अपयश फैलने और अपने घर तक बात ना पहुॅच जाये यह चिंता सवार थी। लगता है गुप्ता जी ने किसी को कुछ नहीं बताया था । गुप्ता जी ने बैंक में यह भी कहा अगर उसकी जरूरत हो तो वे उसके पास चल सकते है, मेरा मामला निपटानें।

शाम को नारायण मेरे कमरे में आया और मुझे लेकर दुकान की तरफ चला। उसने मुझसे कहा, ‘सिंह साहब कुछ नहीं करेगें। कोई एफ.आई.आर. आदि नहीं होगी। वह सिर्फ मुझे डरवां रहे थे।‘ मैंने अविश्वनीय ढंग से उसकी ओर देखा। उसे उत्साह मिला। उसने कहा, ‘सिंह साहब इस बात से नाराज थे तुम हम लोंगों का साथ छोड़कर उन लड़कों के साथ हो गये, जो कितनी गंदी बातें कर रहे थे। ये सब तुम्हें अच्छा लग रहा था? तुम्हारे तो सिंह साहब के साथ घरेलू सम्बन्ध हैं। उस दिन भाभी जी को भी कितना बुरा लग रहा था।‘

‘नहीं-- मैं उनके किसी कृत्य में साथ नहीं था, मैं तो अपने पड़ोसी सलिल जे.ई. के पास था।‘ मैंने कुछ नहीं किया तो मेरे विरूद्व एफ.आई.आर. और जो सब कह सुन रहें थे उनके विरूद्ध क्यों नहीं।‘

‘सिंह साहब किसी के विरूद्ध कुछ नहीं करेगें। वे सिर्फ ये चाहते हैं कि तुम उन लोफड़ों का साथ छोड़ दो। और हम लोंगों के साथ ही रहा करो।‘ मैं चुप रहा था और इसके अर्थ खोज रहा था, मैं चुप लगा गया था। नारायण ने मेरे कंधे में हाथ रखा और कहा,‘ चलो तुम दोनों फिर से दोस्त बन जाओ। किन्तु इसके लिये तुम्हें उन लड़कों का साथ छोड़ना पडें़गा और सिंह साहब और भाभी जी के पास पुनः वापस लौटना पड़े़गा।‘ मैं चुप रहा था और कोई आश्वासन नहीं दिया था और उसके कहे हुये के निहितार्थ तलाश कर रहा था। नारायण गया और जागीर सिंह को बुला लाया था। नारायण ने हम दोनों के हाथ मिलवाये और जागीर सिंह तो मेरे गले भी लगा था और ये कहा कि ‘मैंने सब कुछ इसलिये किया कि तुम उन आवारा लड़कों के साथ रहकर बिगड़ न जाओ।‘ मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया था। मैं इस बात से संतुष्टि का अनुभव कर रहा था। कि इतना दुरूह मामला आसानी से निपट गया था, कुछ बोलकर मामला बिगाड़ ना दूं। एफ.आई.आर. से बच रहा था, क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि शैलजा तो अपने मालिक का साथ देगी ही और मैं अपमानजनक दागदार स्थिति में पहुॅच सकता था और नौंकरी जाने का अंदेशा भी।

नारायण और जागाीर ने जोर दिया कि रात का खाना सिंह साहब के घर में हो। और पुनः दोस्ती स्थापित होने का जश्न मनाया जाये और खर्चा दोनों लोग आधा-आधा वहन करें। मगर मैंने इस बात का दृढ़ निश्चय कर लिया था कि ऐसे गिरगिट इन्सान से तो दूर रहूंगा और किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखूंगा, अब गिरगिट के जाल में नहीं फंसना है। मैंने दोनों से विनम्रता पूर्वक माफी मांगी यह कहते हुये कि मेरी तबियत ठीक नहीं है, ये फिर कभी सही।

मैं कमरे की तरफ अकेला ही चल पड़ा था, असंपृक्त। मैं अपने निर्णय से खुश नहीं था। सही गलत के उॅंहापोह में था। मैं शैला से सम्बन्धहीन होना नहीं चाहता था । इस प्रकरण में उसका कोई कसूर नजर नहीं आ रहा था। वह मुझे चाहती है, इस विषय में मैं आश्वस्त था। फिर उससे विछोह क्यों ? कदम इस तरह से उठ रहे थे कि जागीर या नारायण कोई रोक लेगा, मना लेगा और फिर रंगीनियत का दौर चल पड़ेगा।

वह छाती जा रही थी। शैलजा, अप्सरा, हसीना विभिन्न रूपों में भरमा रही थी।, लुभा रही थी। ..........परन्तु अब छूट रही है। ऐसा लगता है कि सब कुछ खो गया है। दिमाग खाली था और दिल डूब रहा था। परिदृश्य से जागीर सिंह और नारायण गायब थे और घूम रहे थे, अतीत के दृश्य। दिल-दिमाग आखों से कदमों का तारतम्य टूट चुका था।

एक चैथाई कि0मी0 का रास्ता कितना दुरूह और यंत्रणा भरा था कि घर पहुॅचना मुश्किल हो गया। कितना वक्त लग गया होगा, अनभिग्न था। सड़क से हट कर जब अपनी गली में घुंसा तो अपने को पाया। अंधेरा था। बिजली नहीं आ रही थी। अभ्यस्तता से अपने कमरे पहुॅंचा तो लगा कि वह कि वह चबूतरे पर या आस-पास है कहीं। यह मेरा भ्रम है, यह सोंच कर सर छटका और कमरे का ताला खोलने को उद्घृत हुआ।

‘कौन ?‘ मैं डर कर चैंका । किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया था। सफेद नाजुक हाथों ने मेरा हाथ दबा रखा था, जिसकी गर्माहट मेरे शीतयुक्त बदन में झुरझरी पैदा कर रही थी। मैंने आंखें उठाकर देखा, वह वही थी और मैं विस्मय से भर गया ।

‘मैं........! वह फुसफुसायी। एक शब्द ही इतना मादक और चुम्बकीय था मैं आवाक, अपलक निहारता, बेसुध हो गया। उसने एक हाथ मेरी कमर में डाला और ले चली अपने गंतव्य की ओर। मैं झेप रहा था, कोई देख न ले, परन्तु अंधेरा कवच बना था। वह बिंदास, नख से शिख तक आमंत्रण ही आमंत्रण थी।

मैं हवा में उड़ रहा था, वह जमीन में चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि मैं बुलबुल बन गया हॅू, शैला डोर और जागीर सिंह अड्डे में परिवर्तित हो गया हे। डोर का एक सिरा बुलबुल के पैर में बंधा था और दूसरा सिरा अड्डे से जुड़ा था। बुलबुल का उड़ना सीमित हो गया था।


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