ग़ज़ल

ग़ज़ल

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हर घर में कोई तहख़ाना होता है 
तहख़ाने में इक अफ़साना होता है 

एक पुरानी अलमारी के ख़ानों में 
यादों का अनमोल ख़ज़ाना होता है 

रात गए अक्सर दिल के वीराने में 
इक साये का आना जाना होता है 

दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है 
कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है 

बढ़ती जाती है बेचैनी नाख़ुन की 
जैसे जैसे ज़ख्म पुराना होता है 

जिंदा रहने की ख़ातिर इन आँखों में 
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है 

तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं 
हर पल जिन के साथ ज़माना होता है 

सहरा से बस्ती में आ कर भेद खुला 
दिल के अंदर ही वीराना होता है 

सरमस्ती में याद नहीं रहता आलम 
महफ़िल से वापस घर जाना होता है 


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