एक विशाल शजर सी छाया देते हमारे बड़े
एक विशाल शजर सी छाया देते हमारे बड़े
जैसा कि हमारी प्रतियोगिता का विषय बहुत ही रोचक और भावात्मक है,क्यूंकि हमे उस रिश्ते के बारे में अपने विचार देने हैं जो हमारी नींव के निर्माणकर्ता है और जो हमारे परिवार की सबसे मजबूत डोर है ,जिसमे बड़ी ही खूबसूरती से जाने कितने रिश्तों को पिरोया हैं।हाँ, तो मैं बात कर रही हूँ घर के सबसे बड़े सदस्य की दादा -दादी,नाना -नानी और ताऊ-ताई की ,जो बड़ी ही सहजता से अपने परिवार को संजो कर रखते है।मैं किसी और की बात न करते हुए अपने बालपन से लेकर उस समय तक की बात करना चाहूँगी जब तक मुझ पर दादा-दादी का वो प्यार भरा साया रहा।मैं बचपन से एक संयुक्त परिवार में रही हूँ और बचपन से उस अटूट प्रेम से परिपूर्ण रही हूँ जिससे अक्सर लोग वंचित रहते है।मुझे याद है ,जब मैं मात्र 5 या 6 साल की थी और मम्मी मुझे और दीदी को बड़ी ही बेख़बरि से दादी-बाबा को संभालने के लिए छोड़ जाती थी,ये थोड़ा अतिशयोक्ति से प्रतीत होता है कि 5-6 साल की उम्र का बच्चा दादा-दादी को कैसे सम्भालेगा लेकिन मुझे याद है कि मैं उन्हें औऱ वो हमें दोनो ही एक दूसरे को संभालते थे।जब दादी या बाबा को मुझसे कुछ काम कराना होता था तो दादी अपने पल्लू में बंधे उस पाँच के सिक्के का लालच देती थी मुझे और मैं झट-पट कमरा साफ कर देती थी और फिर वो मुझे देख मुस्कुराती और मुझे वो पैसे मिल जाते।
मैं बहुत ही किस्मतवाली रही हूँ क्यूंकि मुझे ऐसे दादा-दादी और नाना-नानी मिले जिन्होंने मुझे हमेशा प्यार किया ।मुझे याद है ,मेरी दादी का देहांत जब हुआ तब मैं मात्र बमुश्किल 10 या 11 साल की थी और मैं कुछ समझ नही पा रही थी कि क्या हुआ सब कुछ मेरी आँखों के सामने हुआ और मुझे उस पल एहसास नही हुआ कि मैं दुबारा उन्हें कभी नही देख पाऊंगी या उनकी साड़ी के पल्लू में बंधा वो पाँच का सिक्का अब नसीब नही होगा,लेकिन कहते है ना वक़्त हर घाव को भर देता है क्यूंकि बाबा को संभालना था ,दादी के बिना वो अधूरे हो गए थे फिर मैं उनके साथ हर पल साये के साथ रहने लगी और उनकी जुबां पर मेरा ही नाम रहता था ।अभी 2 साल पहले मुझे दिल्ली जाना पड़ा कुछ महीनों के लिये और मैं उनसे ये बताने की हिम्मत नही जुटा पा रही थी ,लेकिन मैंने उनसे कहा और उनकी आँखों मे आँसू भर आये और वो कहने लगे कौन रहेगा मेरे पास हमेशा तुमहारी तरह ,लेकिन हमारे घर के सारे बच्चे उन पर अपनी जान न्यौछावर करते थे और मुझसे भी कही गुना जिम्मेदारी से दीदी ने बाबा का उन दिनों ख्याल रखा और मुझे जब भी मौका मिलता मैं उनसे मिलने आ जाती और उनके चेहरे पर मुझे देखकर जो खुशी होती थी उसको मैं शब्दों में बयां नही कर सकती फिर मैं पिछले साल मई में वापस घर आ गयी और वो बहुत खुश हुए ,लेकिन इस बार मैं सिर्फ उनके साथ 49 दिन ही रह पायी और वो अपनी बीमारियों से हार मान लिए,बस यही तक सफर था उनका हमारे साथ।मैंने नाना-नानी के साथ इतना समय नही बिताया क्यूंकि कम ही जाने का मौका मिलता था हमे नाना-नानी के घर जाने का ,पर हमारे लिए उससे सुंदर पिकनिक स्पॉट नही था।बस यूँही इन रिश्तों का प्रभाव रहा मेरी ज़िंदगी में।मेरे बचपन से अब तक बड़ो की भूमिका आपने देखी कि कितना प्यार मिलता हैं और सहारा भी इसीलिए मैं कहना चाहूंगी कि बड़ो के साथ समय बिताना हमारी खुशकिस्मती है।पहले वो बचपन मे हमारा हाथ थामते हैं और बुढ़ापे में उनका हाथ हर पल हमे थाम लेना चाहिये।