Neelam Negi

Others

4.8  

Neelam Negi

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" दुःखी पर भागवान अम्मा "

" दुःखी पर भागवान अम्मा "

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संसार में नित न जाने कितने लोग मरते और कितने मारे जाते हैं किंतु क्या कोई ऐसा भी होगा जो अपने जीवन से इतना त्रस्त और विरक्त होकर वर्षों भगवान से अपनी मृत्यु के लिए प्रार्थना करता रहे,सबसे यही विनती करे " मैंने क्या इतना बुरा किया होगा जो इतना भुगत रही हूं, कैसे कैसे पाप करते हैं लोग फिर भी उनका भला होता है, क्यों नहीं आती मुझे मौत? " मन अधिक व्यथित हो जाने पर कहती "मेरे लिए नवान(विष)ला दो,कोई ऐसी दवा,सुई नहीं होती जिससे तुरंत खत्म हो जाएं? कोई इच्छा मृत्यु का मार्ग नहीं होता होगा? कहां अटक गए मेरे प्राण जो निकल नहीं पा रहे?" उस समय बच्चे खीझकर कहते "ला देंगे तुम्हारे लिए जहर,खा सकोगी? है हिम्मत? व्यर्थ क्यों बोलती हो,जब समय आएगा तभी जाओगी ना?"बड़े बुज़ुर्ग भी समझाते रहते,अम्मा अश्रुपूर्ण नेत्रों से हामी भरकर सिर हिलाती, टुकटुक देखती फिर खिसिया सी जाती.

         ऐसी थी गंगोलीहाट में 89 वर्ष की बूढ़ी अम्मा. इतना विचित्र उतार चढ़ाव वाला त्रासदी भरा जीवन भी किसी का हो सकता है विश्वास नहीं होता,नियति की न जाने कितनी मार सही उन्होंने. कम उम्र में विवाह हो गया तब दादाजी गोरे चिट्टे,लम्बे चौड़े, शिक्षित,उच्च कुल,संपन्न,अच्छी शिक्षा प्राप्त कर बाद में उच्च पद पर प्रतिष्ठित हुए.अम्मा आठवीं पास, देखने सुनने में भी कोई खास नहीं,ऊँचे कुल वंश के होते विवाह हुआ था. पूजा पाठ, व्रत उपवास, धर्म कर्म, घर गृहस्थी बस यही दिनचर्या थी उनकी. विवाह के कई वर्षों तक संतान नहीं हुई, पति(दादाजी)नास्तिक से थे "कर्म से श्रेष्ठ बनो, देवी देवताओं,अंधविश्वास से अधिक मानव सेवा का उद्देश्य होना चाहिए" यही कहा करते थे.संताने हुईं कोई नहीं बची. दोनों का जीवन निराशा से घिर गया. एक रात्रि स्वप्न में हाट कालिका (स्थानीय मान्यता प्राप्त)देवी ने साक्षात दर्शन दिए बोलीं " क्यों, तू भगवान को नहीं मानता है ना? " दादाजी बस इतनी सी बात के भीतर छिपे मौन संकेत को समझ स्वप्न से जागे, विचार करते रहे और उसी दिन से देवी भक्त हो नित्य पूजा अर्चना पूर्ण भक्तिभाव से करने लगे. पहला पुत्र जन्मा देवी प्रसाद नाम रखा, उसके बाद तीन बच्चों से भरा पूरा परिवार हुआ. बच्चों की शिक्षा दीक्षा,अच्छा पालन,नौकरी,गृहस्थी,पोते पोतियों से घर गूँजता था. दादाजी का बड़ा नाम प्रसिद्धि,समृद्धि सब कुछ तो था.

          अचानक ह्रदयाघात से दादाजी स्वर्ग सिधार गए. पुत्रों के सहारे अम्मा का जीवन कट ही रहा था, एक वर्ष बाद छोटा बेटा फिर जल्दी ही बड़ा बेटा भी चल बसा. अम्मा के सिर में विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा. आधुनिक संस्कृति से प्रभावित दोनों बहुओं की अवहेलना के चलते अम्मा बोझ बन गईं,तालमेल नहीं बना कोई कहता "बुढ़िया की जुबान ख़राब है मन अच्छा से क्या होता है मुँह भी अच्छा होना चाहिए तभी सम्मान से दिन कटते हैं" परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि अल्मोड़ा ससुराल के पैतृक घर में अलग होकर रहना पड़ा. इधर उधर अम्मा का मन नहीं लगता था, "अपनी ही थाती धरती में मरना चाहिए " कहा करतीं. कुछ बिरादरी के लोग उलाहने देते "अधिक सरल या हठी होना भी ठीक नहीं होता" अम्मा स्वाभिमानी भी थी किसी के समक्ष हाथ न फैलाना पड़े सोचकर अपने जेवर भी बेच डाले,अब उनके हाथ में कुछ भी न रहा.

         अंततः वृद्धावस्था आ गई, शरीर में शक्ति और सामर्थ्य न रहने से सब द्वार बंद हो गए. तब बड़े दामाद ने आग्रह किया "आप चलकर हमारे साथ रहें " "नहीं नहीं क्षमा करो बेटी के घर कैसे रहूं? कन्यादान किया है पानी भी नहीं पीते हम " कुछ समय बाद स्वास्थ्य ख़राब हो जाने तथा बहुत मान मनुहार के बाद जाना पड़ा. वहां भी संयुक्त परिवार में कई तरह के लोग हुए, किसी ने अच्छी सेवा की तो किसी ने कोसा भी. स्वभावतः अम्मा परिश्रमी व कर्मशील रही थीं, सो वहां भी घर,बागीचा, किचन गार्डन,सिंचाई, गुड़ाई कुछ न कुछ करती रहती,उसमें भी ताने सुनती "अपने यहां करो जो करना है, यहां क्या है तुम्हारा अच्छी होतीं तो अपने बहुओं पोते पोतियों संग न निभाती?" अम्मा कुछ न बोल पाती मुँह खोलते ही "जैसा काला रंग है वैसा ही ख़राब मुँह और काला दिल भी है " अपने काले रंग के कारण अम्मा कई बार तिरस्कृत भी होती रही थी, दुर्भाग्य की मारी अम्मा बेटी दामाद के वहां भी आपसी कलह का कारण बनीं.

        अपार वेदना व अवहेलना से आहत अम्मा फिर विलाप करने लगतीं "मैंने क्या अधर्म किया जो मेरी ऐसी दुर्गति हुई, मैं पापी हूं बेटी के घर में खा रही हूं " पति (दादाजी)की पेंशन वाली नौकरी न थी, अपने हिस्से के एक कमरे को किराये पर चढ़ा बेटी को किराया देती, मना करने पर " बेटी अगले जन्म का भार रह जायेगा, तुम लोग इतनी सेवा कर रहे हो,मुझे भी थोड़ा सा सही संतोष तो रहेगा" ताने सुनने का भाग्य भी अम्मा का बहुत था थोड़ी सी सलाह सुझाव देने पर अन्य परिवारजन बोल उठते "हर समय किचकिच टोकाटोकी मत किया करो, क्या खा रखा है तुम्हारा जो बहस करने लगती हो "कभी कोई कहता "अभी कहां मरती है बुढ़िया अभी कितना भुगतना है इन्होंने "बेटी दामाद द्वारा अम्मा की सेवा देख कई लोग चिढ़ भी जाते, ईर्ष्या की पराकाष्ठा हो गई जब किसी ने कहा "अभी क्या भुगता है, तब भुगतोगे ठहरो जब कीड़े पड़ेंगे तुममें ".

        समय गुज़रते धीरे धीरे अम्मा का मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया वर्तमान विस्मृत और अतीत की स्मृति में जाने लगीं, अपने पितरों का नाम लेकर "मुझे बुला रहे हैं "कहती. होश भी खो बैठती सारे वस्त्र उतार भूमि पर बैठ जाती, छि:छि: थू थू होने लगी. किसी ने लानत भेजी किसी ने पूर्व जन्म से इस जन्म तक उनके कर्म बांच दिए. दामाद जी से कहती "मैं मरूंगी मेरी सतगति, क्रिया कर्म कौन करेगा?" विश्वास भी उन्हीं में था "तुम मेरे पूर्व जन्म के धर्मपुत्र हो कुछ मत करना बस मुझे हरिद्वार फेंक आना तुम्हारा भला होगा "एक पोती से स्नेहाधिक्य था जो ससुराल से आकर नानी की सेवा कर जाती थी, उससे भी बार बार हाथ जोड़ती रहती, उसने कहीं जाना था, परिहास करते हुए बोली "15 तारीख़ आ जाऊंगी अम्मा तब भी तुम 16 तारीख़ को जाना हां!" कुछ दिन से अम्मा ने अन्न जल त्याग दिया था.

         ठीक 16जनवरी 2010 दिन शनिवार, महाकुम्भ का वर्ष, माघ का पवित्र माह, शुक्ल पक्ष, प्रथम नवरात्रि, शनिवार मृत्यु होना पहाड़ में महाप्रयाण हेतु अच्छा माना जाता है,15 तारीख़ को दीर्घ ग्रहण भी टल गया, उस दिन घर में कई लोगों का शनिवार व्रत था, कोई बोला "अम्मा की सांस उखड़ रही है एक बखत खाना होता है खा लो " जल्दी से उड़द चावल की खिचड़ी पका व्रत वालों ने जैसे खाया अम्मा ने प्राण त्याग दिए, कितने वर्षों से घर में पानी आपूर्ति की समस्या हो रही थी उसी दिन नल भी ठीक हो पाया, अम्मा ने प्राण त्यागे और उधर नल में तड़तड़ पानी आ गया. अब ये सब देख लोग कहने लगे "अम्मा आशीर्वाद दे गईं तुम सबको "अम्मा के जाते ही जो कल तक उन्हें कोसते नहीं थकते थे अचानक वही गुणगान करने लगे, तीन चार दिन तक अम्मा की सेवा करने वाली बेटी की खूब आफत हुई, कई बार बिस्तर खराब किया अम्मा ने,शरीर के भीतर की सारी गंदगी बाहर फेंक, तीन दिन पूर्ण उपवास कर शुद्धता से मात्र तुलसी गंगाजल ग्रहण कर प्राण त्यागे.

          जो कहते थे "कैसी सख्त जान है बुढ़िया जाने कहां अटक गए हैं इसके प्राण "आज एकाएक उनका ह्रदय परिवर्तन देखने को मिला "अहा! कितनी भाग्यवान् पुण्यात्मा हुई अम्मा जो ऐसी धर्मात्मी मौत हुई,ग्रहण अमावस्या के दिन मरती तो कितना बुरा होता?" अंत समय अम्मा की हरिद्वार जाने की इच्छा थी,अम्मा की जन्मपत्री खो चुकी थी ठीक हरिद्वार क्रियाकर्म हेतु जाते समय मिल गई. दामाद भतीजे सब गए, मौसम भी अच्छा रहा. हरिद्वार में खूब अच्छी तरह ब्रह्मभोज हुआ,गरीबों को खाना खिलाया गया. अम्मा की एकादशी व्रत में बड़ी श्रद्धा थी उनकी ग्यारहवीं के दिन एकादशी ही थी. महात्मी पवित्र माह में अम्मा के जाने से साथ गए परिवारजनों को हरिद्वार स्नान करने का अवसर भी मिला

         चाहे अम्मा की परिस्थिति ऐसी बनी या पूर्व जन्म के प्रारब्ध थे या फिर जीवन का भोग जो उन्हें भोगना पड़ा था, जीवन के अंत तक उसकी पराकाष्ठा हो चुकी थी.जिसने जो अच्छा बुरा किया, कहना न कहना जिसने जो कहा भगवान उनके साथ न्याय करेगा, पर ये भी अकाट्य सत्य है कि अम्मा ने ऐसी धर्मात्मी दिन मुक्ति प्राप्त कर अगला जन्म तो सुधार ही लिया और सबका मुँह बंद भी कर दिया. अम्मा का दुर्भाग्य ही था कि असमय उनका सबकुछ भगवान ने छीन लिया और अपराध ये था कि बहुओं सहित भरा पूरा परिवार होते हुए भी बेटी दामाद की शरण में जाना पड़ा. पति पुत्रों के रहते जीवन शान से गुजारा था अंत में तिरस्कृत हुईं. उन्होंने खूब सुना सहन किया पर उनकी परिस्थितियों की विषमता को कोई नहीं समझ सका, एक दिन सभी ने दुनिया से जाना है, किसका अंत कैसा है, कौन जानता है? प्रत्यक्ष प्रमाण है कि व्यवहार की कमी हो सकती है पर भाग्य से हीन होकर भी अम्मा को कर्महीन कोई नहीं कह सकता क्योंकि कर्ममार्ग बिगाड़कर कोई मृत्यु के लिए ऐसा धर्मात्मी और दुर्लभ संयोग प्राप्त नहीं कर सकता.6 फरवरी (शनिवार) को बेटी दामाद ने अम्मा के लिए एक शांति पाठ रखा और सब अच्छा बुरा बोलने वालों को भी शांति हो गई.

            स्वर्गवासी होकर 'मुक्ति 'सभी को मिलती है अम्मा को तो 'मोक्ष' प्राप्ति हो गई किंतु एक ओर सभी बुज़ुर्गो को विचार करना चाहिए कि अपने बेटे बहू अपने ही होते हैं थोड़े से प्रेम व्यवहार, दो पीढ़ीयों के पारस्परिक सामंजस्य से बुढ़ापा सुधर जाता है,मान सम्मान भी बना रहता है और महाप्रयाण व अंतिम यात्रा भी उन्हीं की देहरी से शोभा देता है. दूसरी ओर सब कुछ होते हुए असहाय बना दिए गए बुज़ुर्गो के बेटे बहुओं को भी सोचना चाहिए, कुछ बुजुर्ग अच्छे,यथास्थिति समझौता कर लेने वाले होते हैं, कुछ अनीति अन्याय वाले अव्यवहारिक अड़ियल भी होते हैं.संताने उन्हीं के प्रसाद से उपभोग करती हैं.लकड़ी जलकर पीछे को ही आती है, कलयुग है तब भी बबूल बोकर आम कोई नहीं खा सकता, जीते जी नहीं पूछा मरने के बाद फिर श्राद्ध,दान,भोज जैसे पितृ कर्मों का क्या औचित्य है ? किसी के न्याय अन्याय धर्म अधर्म का निर्णय करने वाले हम कौन होते हैं? सब ऊपर नीली छतरी वाला करता है.

         अंत में दो यक्ष प्रश्न मेरे मन में बार बार कांटे की तरह चुभते रहते हैं जिसका उत्तर मुझे आज तक मिल सका है. एक ये कि अम्मा को उस तरह निभाने देखभाल करने वाले धर्मात्मी और संस्कारी बेटी दामाद न मिलते तो क्या होता? और दूसरा ये कि गलती किसी की भी हो सकती है, अम्मा की चल अचल धन संपत्ति का अधिकार (हक)बेटे बहू नाती पोतों का हुआ पर उनके लिए कर्तव्य (फर्ज़) किसका था?

                 


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