चलिऐ अब....

चलिऐ अब....

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परमानंद बाबू की पत्नी के देहांत होने के कुछ दिनों के बाद सभी इसी विषय पर चर्चा कर

रहे हैं कि इनके आगे के दिनों का रहने-सहने और खाने-पीने का इंतेज़ाम  किस प्रकार किया जाऐ

ताकि इनके बचे हुऐ  दिन आराम से बीत सकें। सुलक्षणा और रामपुरवाली दोनों ही इनकी सेवा

करने के लिऐ  बहुत ही इच्छुक हैं। इनकी सेवा करके वे अपना जीवन धन्य करना चाहती हैं,

ऐसी बात नहीं है। हाँ , इतना ज़रूर  है कि इनकी सेवा से दोनों की आर्थिक हालत में सुधार की

संभावना है। इसी संभावना को पाने के लिऐ  दोनों हरसंभव कोशिश कर रही हैं। गिरिधर बाबू

और शशिधर बाबू, जो परमानंद बाबू के छोटे भाई हैं, भी अपने पक्ष को सबल बनाने की कोशिश

कर रहे हैं। ऐसी बात नहीं है कि दोनों की आर्थिक स्थिति दयनीय है और वे दोनों इन्हीं पर

भरोसा लगाऐ  हैं। इन दोनों की स्थिति भी अच्छी है पर ससुराल से मिले धन ने परमानंद बाबू

की आर्थिक स्थिति को अधिक समृद्ध बना दिया।

बातचीत के बीच में ही सुलक्षणा ने कहा- देखिऐ  बड़का बाबू, आपको जो उचित लगे, वही

कीजिऐ , पर मेरी नज़र  में जो अच्छा लगेगा, उसे मैं बिना बोले चुप नहीं रह सकती। आखिर

आप मेरे काका हैं। आपके अच्छे और बुरे का ध्यान मुझे भी रहता है। सुलक्षणा के पिता,

शशिधर बाबू ने बात आगे बढ़ाते हुऐ  कहा- हाँ , हाँ , बोल तो? तुझे क्या कहना है...?

सुलक्षणा थोड़ा प्रोत्साहन पाकर अपनी बात को अच्छी तरह से विस्तार देने लगी- देखिऐ ,

बाबूजी, जैसे आप मेरे लिऐ  हैं, वैसे ही बड़का बाबू मेरे लिऐ । बाप बेटी के रिश्ते से नजदीक भला

और कौन सा रिश्ता हो सकता है। बात सिर्फ़  दो रोटी देने की नहीं है। रोटी तो घर के बाहर भी

मिल जाती है, पर आदमी मन की बात बाहर तो नहीं बता सकता ना... इसके लिऐ  तो घर

चाहिऐ  जहाँ  वह चैन से बोल सके, बतिया सके। अब छोटकी चाची से तो वह खुलकर बोल नहीं

सकेंगे। फिर उनके भी बाल बच्चों वाला परिवार है। अकेली बेचारी घर संभालेंगी  कि बच्चों को।

ऐसे में कब उन्हें फुर्सत मिलेगी इनकी ओर ध्यान देने का। फिर इन दोनों के बीच परदे का भी

ध्यान रखना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर बहु और बेटी में अंतर ही क्या रह जाऐगा...।

सभी को समझाने के साथ साथ सुलक्षणा छोटकी चाची को भी वक्रदृष्टि से देखती जा रही थी।

सुलक्षणा की बातों को सुनते सुनते रामपुरवाली अपना पक्ष रखने और उसकी बातों को

वजनहीन साबित करने के लिऐ  व्यग्र हो गई । अपनी आँख़ों  को मटकाती और हाथों को नचाती

हुयी बोली- अरी लाडो, जब इतनी ही बुद्धि थी, तो अपना घर जाकर क्यों नहीं संभालती? सेवा

करने की इतनी ही इच्छा है तो अपने खाट पकड़े ससुर की जाकर सेवा कर। जब ख़ुद  भला बुरा

इतनी अच्छी तरह से समझती है और दूसरों को भी समझाती है तो ज़रा  दामाद बाबू को भी

समझाती तो उस शराबी को छोड़कर अपने बाप के घर नहीं रहती... मेरे बच्चों को देखकर तेरा

जी जलता है। अगर भगवान की दया से तीन बाल बच्चे हैं तो मैं किसी दूसरे के घर तो नहीं

रहती। तू तो एक को ही लेकर अपने घर नहीं रह पायी, चली आयी अपने बाप के घर,

मलिकाना चलाने। अपना घर तो सँभलता नहीं, बड़ी आयी दूसरों को उपदेश देने....

बोलते बोलते रामपुरवाली ने अपनी तरकस से सबसे तीखा तीर निकाला और चेहरे पर व्यंग्यभरी

मुस्कान लाते हुऐ  कहा- महारानी, तुझे इतना भी पता नहीं कि जब बेटी दान कर दी जाती है तो

फिर मायकेवालों की बातों में उसे बोलने का अधिकार नहीं रह जाता और उसकी सहमति

असहमति का कोई मतलब नहीं रह जाता। अब अपनी जानकी फुआ को ही देखो, वो किसी

बात में दखल नहीं देती हैं? सब उनकी कितनी इज्जत करते हैं। तू मुझसे अपनी तुलना मत

कर। मुझे तो इन्होंने घूँघट देकर इस घर में दस लोगों के बीच में लाया था, फिर मैं इस घर के

बारे में नहीं सोचूँगी तो कौन सोचेगा....।

आवाज़  में नरमी लाते हुऐ  वह बोली- मँझली दीदी तो कब की चली गई  थी हमें छोड़कर,

बड़ी भली थी बेचारी, एक बड़ी दीदी का सहारा था...अब वो भी नहीं रहा... अब तो मैं ही बची हूँ

इस घर का भला-बुरा सोचने के लिऐ .... जब भगवान ने यह भार दे ही दिया है, तो मुझमें जहाँ

तक दम होगा, निभाऊँगी....

आवाज़  में आयी शिथिलता को हटाते हुऐ  बोली, भगवान की दया से बच्चों से घर में रौनक

रहती है। बड़े दादा का भी मन लगा रहेगा। हमें खाने पीने की तो कोई कमी है नहीं... अगर

कोई दिक्कत भी आऐगी  तो इनके आशीर्वाद से सब ठीक हो जाऐगा....।

रामपुरवाली के आशीर्वाद के अभिप्राय को सभी अच्छी तरह समझ रहे थे। माथे से सरके आँचल

को ठीक करते हुऐ  बोली-मुझे अपने मन की बात बताने में इन्हें भला क्या संकोच होगा... मैं भी

तो इनकी बेटी जैसी ही हूँ । बेटी का नाम लेते ही रामपुरवाली की आँख़ों  में बनावटी आँसू आ

गऐ। फिर उसे इस अंदाज़ से पोंछा कि उसे ऐसा करते हुऐ  सभी देख लें।

फिर थोड़ा ठहर कर पास में ही खेल रहे अपने छोटे बेटे से बोली-अरे किशन, जा सबके

लिऐ  दीदी से चाय बनवा कर ले आ....और हाँ , अपने भैया से कहना कि स्कूल से आने के बाद

सब्जी ले आऐ  और बड़का बाबू की पसंद की सब्जी भी ले आऐ ... आज से मैं ही इनके खाने

पीने का ध्यान रखूँगी...। दादा हमारे साथ रहेंगे तो कम से कम बुजुर्ग का साया तो हमारे ऊपर

रहेगा... कोई अच्छा खराब बताने वाला तो रहेगा...।

एक तरह से रामपुरवाली ने बिना किसी की सहमति के निर्णय सबको सुना दिया।

परमानंद बाबू ने भी सोचा कि किसी के पास तो रहना ही है। दोनों में क्या फ़र्क  है? उन्होंने भी

अपनी मौन सहमति दे दी। इसके बाद किसी की सहमति या असहमति से क्या फ़र्क पड़ने वाला

था। शशिधर बाबू और सुलक्षणा के सभी दाँवपेंच बेकार साबित हो गऐ । उन दोनों के पास भी

मौन रहने के अलावा कोई उपाय नहीं था।

जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में भोजन भी एक है, उसका इंतेज़ाम  तो हो गया।

लेकिन जीवन को जीने योग्य बनाने के लिऐ  जिस उत्साह की आवश्यकता होती है, वह उत्साह

कौन देगा...? कहने के लिऐ  घर परिवार है, बच्चे हैं पर आँख़ों  और हृदय को जिसकी खोज है,

वो तो नहीं हैं। उनकी बेटी समृद्धि, जिसे वह प्यार से शुभी पुकारते थे। उनकी इकलौती संतान

थी। उसे वह इतना स्नेह देते थे कि उस आवेग में कब पुत्री ने पुत्र का स्थान लिया, ध्यान ही

नहीं रहा। संतान ने आँख़ों  में स्थान में बना लिया और वह आँख़ों  का तारा बन गई  तो पत्नी

हृदया, हृदय की देवी थी।

जीने के लिऐ  हृदय में धड़कन और संसार देखने के लिऐ  आँख़ों  में रौशनी होनी चाहिऐ । वो

दोनों ही उनके पास थी। आर्थिक रूप से भी ख़ुशहाल थे, पर ससुराल से मिले धन ने उनको

संपन्नता प्रदान कर दी थी। परमानंद बाबू के घर में एक नौकर दामोदर भी था जिसे घर के

सदस्यों जैसी ही इज्जत मिली हुयी थी। दामाद बाबू भी अच्छे विचारों वाले थे। वह दूर रखकर

भी इन दोनों का ध्यान रखते थे।

पर विवाह के कुछ ही वर्ष बाद एक दुर्घटना में शुभी चल बसी। परमानंद बाबू और हृदया

देवी की आँख़ों  का तारा उनकी आँख़ों  से ओझल हो गया था। बेटी के जाने के साथ ही दामाद

भी सभी रिश्तों को भूल गऐ । शुरु शुरु में उनका आना जाना होता रहा, शायद उन्हें कुछ आर्थिक

लाभ की आकांक्षा थी पर इसे फलीभूत नहीं होते देख उनका आना धीरे धीरे बंद हो गया। कुछ

दिनों बाद पता चला कि उन्हें अपना विधुर जीवन त्याग कर पुनः किसी को सौभाग्य प्रदान कर

सौभाग्यवती बना दिया है। परंतु परमानंद बाबू और हृदया देवी इसे ही अपनी नियति मानकर

जीने की कोशिश करने लगे। वे अपने भाई और बच्चों का पूरा ख्याल रखते। दामोदर चाहते हुऐ

भी अपने मालिक का साथ नहीं दे पाया। अपने घर की आवश्यकताओं के कारण वह अपने घर

चला गया। हाँ , बीच बीच में आकर उनकी खोज ख़बर  लेता रहता था।

पत्नी के निधन के बाद अब हृदय की सरिता भी सूख गई । कभी कभी जिंदगी कैसे

बीतती जाती है, पता ही नहीं चलता, कभी कभी एक एक पल भारी हो जाता है। अपने बीते

दिनों को याद करते करते कब रात हो गई , उन्हें पता ही नहीं चला। उनका ध्यान तब टूटा जब

रामपुरवाली अपने छोटे बेटे श्याम के साथ खाना लेकर आयी।

माथे पर आँचल डाले और हाथ में थाली लिऐ  बोली- क्यों दादा, तबियत ठीक नहीं है

क्या..? देखिऐ  मैंने आज आपकी पसंद की खीर बनायी है। ज़रा  खाकर बताइए, कैसी है....? बड़ी

दीदी को देखते देखते मुझे भी आपकी पसंद का अंदाज़ा तो हो ही गया था पर महीने भर से

खिलाते खिलाते आपकी पसंद को और बारीकी से समझने लगी हूँ ...

इसके बाद वह अपने बनाए खाने और अपनी तारीफ सुनने के लिऐ  अधीर हो उठी। पर परमानंद

बाबू हूँ  हाँ  के अलावा कुछ नहीं बोले। नारी में अपनी प्रशंसा सुनने की कामना जितनी अधिक

होती है, धैर्य उतना ही कम होता है।

आंचल ठीक करके गिलास में पानी डालते हुऐ  बोली- दादा आप हमेशा क्या सोचते रहते हैं...?

आपकी ऐसी दशा देखकर आपके भाई और मुझे अच्छा नहीं लगता, बच्चे भी बेचैन हो जाते हैं

आपके लिऐ ... बस आप ख़ुश  रहिऐ , हमें और क्या चाहिऐ ....। भगवान की दया से सबकुछ तो है

हमारे पास.... उसने अपनी बातों के वास्तविक अर्थ पर पर्दा डालते हुऐ  कहा।

परमानंद बाबू भी उसकी बातों पर ख़ास  ध्यान नहीं दे रहे थे, सो समझ नहीं पाए। बोले-

नहीं बहू ऐसी बात नहीं है... उन्होंने बात बदलने की कोशिश करते हुऐ  कहा- अरे श्याम, तू बड़ा

चुप है। सुबह तो खूब हल्ला मचा रहा था। रामपुरवाली बीच में ही तपाक से बोल पड़ी- हल्ला

नहीं मचाएगा तो क्या करेगा, कल शाम अपने बाबूजी के साथ सब्जी लेने गया था। तभी से

जिद मचा रहा है गोभी की सब्जी के लिऐ .... अब इसे कैसे समझाऐं  कि हम गृहस्थ लोग हैं,

हमारे लिऐ  रोज रोज महँगी सब्जी खाना संभव नहीं है, घर में कोई खजाना तो गड़ा हुआ है नहीं

कि... इस बार परमानंद बाबू उसकी बात समझ गऐ । बोले-कोई बात नहीं बहू, कल से मैं ही

इसकी पसंद की सब्जी ले आया करूँगा। घर की गाय का दूध सूख गया था सो बच्चों का मुँह

देखकर दूध भी लाने लगे। धीरे धीरे परमानंद बाबू घर की छोटी मोटी अन्य ज़रूर तों को भी पूरा

करने लगे।

एक दिन गिरिधर बाबू सुबह सुबह ही दादा के कमरे में चाय लेकर आऐ । वह कुछ पढ़

रहे थे। नज़र  पड़ते ही बोले- अरे गिरि, आज तू चाय लेकर आया है....., बच्चे नहीं थे क्या...?

नहीं दादा, ऐसी बात नहीं है, सोचा चाय लेकर आज मैं ही जाऊँ। आपके लिऐ  तो मैं भी बच्चा

ही हूँ ... गिरिधर बाबू चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट लाते हुऐ  बोले।

परमानंद बाबू बोले- अच्छी बात है...आ बैठ मेरे पास... तू भी चाय पी... । फिर गिरि का चेहरा

देखकर बोले.... क्या बात है आज कुछ परेशान लग रहे हो, कुछ परेशानी है तो मुझे बता....

गिरि बोले- नहीं ऐसी कोई ख़ास  बात नहीं है... लेकिन...?

बड़े दादा बोले- लेकिन क्या...

गिरिधर संकोच से बोले- दादा देवघर में ज़मीन बिक रही है... सहदेव भी ले रहा है... सोच रहा

था कि अगर थोड़ी ज़मीन मैं भी.... परमानंद बाबू ख़ुश  होकर बोले-ये तो अच्छी बात है, इसमें

सोचना क्या है... ले ले....

गिरिधर के चेहरे पर हल्की ख़ुशी  आयी, बोले अगर आप कुछ मदद कर देते तो...

परमानंद बाबू चुप रहे। कोई उत्तर नहीं पाकर गिरिधर फिर बोले- हाथ में पैसे आते ही वापस कर

दूँगा ....।

लेकिन परमानंद बाबू ने इस पर भी कोई उत्तर नहीं दिया। उनकी उदासी और चुप्पी देखकर छोटे

भाई के मन में शंका पैदा होने लगी।

परमानंद बाबू का मुख मलीन हो गया। फिर उन्होंने धीरे धीरे बोलना शुरु किया- गिरि,

तुम्हें तो पता ही है, जब से शुभी छोड़कर गई , तब से मेरी क्या स्थिति है.... पहले तो उसकी

शादी में ही जमा पूँजी बहुत लग गई , फिर उसी मृत्यु के बाद घर गृहस्थी पर भी ध्यान नहीं दे

पाया... पास में जो कुछ बचा था उसी से ख़र्च  चलता रहा... और अब जो पास में थोड़ा बहुत है,

उसी से बाकी का ख़र्च  चल रहा है... अगर तुम कहो तो किसी से...

छोटा भाई आवेग में बीच में ही बोल पड़ा- नहीं दादा, जब यही करना है तो मैं ख़ुद  ही कर

लूँगा .... कहकर वह तेजी से उठकर चले गऐ ।

गिरिधर और रामपुरवाली की आशा पर जो वज्रपात हुआ, उसमें परमानंद बाबू के प्रति

सारी सहानुभूति, प्रेम, संवेदना ख़ाक हो गई । गिरि अब शायद ही कभी हालचाल पूछने जाते।

रामपुरवाली का व्यवहार भी दिन पर दिन रूखा होता गया। संवेदना देते देते वे स्वयं संवेदनहीन

हो गऐ । परमानंद बाबू सभी छोटी मोटी ज़रूरतों को पूर्ववत पूरा करते रहे। लेकिन अब न तो

उनकी पसंद का खाना बनता और न ही अन्य काम समय पर पूरा किए जाते।

एक दिन रामपुरवाली खाना लेकर आयी तो थाली में सिर्फ़  सब्जी रोटी ही थी। परमानंद

बाबू बोले- क्यों बहू, घर में दूध नहीं था क्या...? रोज तो आता ही है। इतना सुनते ही

रामपुरवाली हुंकार उठी- दादा, दूध की ज़रूर त बच्चों को होती है न कि बूढ़ी हड्डियों को.... इन

बूढ़ी हड्डियों से अब क्या होने वाला है... अगर बच्चे ढंग से....

परमानंद बाबू ने बात खत्म करने के लिऐ  बीच में ही कहा- कोई बात नहीं बहू... मैं तो बस ऐसे

ही बोल रहा था.... रोटी सब्जी भी बहुत है..... इतना सुनकर रामपुरवाली भी भनभनाती हुयी

चली गई ।

कमरे में लेटे लेटे वह सोचने लगे- जब हृदया थी, भोजन के समय कितनी ख़ुशामद

करती थी... हमेशा ज़रूरत से अधिक ही खिला देती थी... बिना मुझे खिलाऐ अन्न का एक

दाना अपने मुँह में नहीं लेती थी... और आज सभी के खाने के बाद ही खाना मिलता है.... ठीक

ही तो है, बच्चों को समय से खाना मिलना चाहिऐ । गिरि को भी बाहर जाना होता है। उसी पर

गृहस्थी का पूरा बोझ है....।

परमानंद बाबू ख़ुद  को समझाने लगे। लेकिन ख़ुद  को समझाते समझाते आदमी कुछ देर

के लिऐ  ऐसी जगह खोजता है जहाँ  वह समझने और समझाने से दूर हो, कोई तो हो जहाँ  वह

स्वयं को पूरी तरह मुक्त महसूस कर सके। वह सोचने लगे, शुभी, अगर आज तुम होती तो क्या

इसी तरह करती... जिस बाप ने अपने ख़ून से तुझे बनाया, उसी के मुँह से निवाला छीन

लेती.... नहीं शुभी, तुम ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि मै तुम्हारा पिता था। लेकिन गिरि का तो मैं

पिता नहीं....। जिस धन की आशा से वह मुझसे बंधा था, वो भी तो मेरे पास नहीं है।

कुछ रिश्ते केवल धन की धरातल पर ही टिकते हैं।

हृदया और शुभी दोनों मुझे छोड़कर चले गऐ ... तो मैं यहाँ  किसकी आशा में बैठा हूँ ... कोई

तो नहीं है...। हृदया आकर एक बार देख तो लेती, तुम्हारे बिना भोजन कराऐ .... मैं कैसे भोजन

करता हूँ ...।

शायद पति और पत्नी का ही रिश्ता ऐसा है जहाँ  किसी भी बात या भावना को निःसकोच

अनावृत किया जा सकता है। इसके अलावा तो हर रिश्ते में बातों को कहने से पहले कितने ही

आवरणों में लपेटा जाता है। परमानंद बाबू की भावनाओं का साथ आँसूओं ने भी दिया। भावनाऐं

और आँसू दोनों मिलकर आँख़ों  से उमड़ पड़े।

अब तो परमानंद बाबू को सुबह का खाना देर दोपहर तक मिलने लगा। जब एक बार देर

होने लगती है तो फिर देर होती ही रहती है। एक दिन रात में वह अपने कमरे में खाने का

इंतेज़ार  कर रहे थे और अपने आप में डूबे कुछ सोच रहे थे कि अचानक दामोदर ने आकर उनके

पैर छुऐ । उसे देखकर लंबे समय बाद उनके चेहरे पर ख़ुशी  आयी। बोले- अरे दामोदर तू कब

आया.....कैसा है...? दामोदर नीचे बैठते हुऐ  बोला- बस मालिक आपकी याद आयी और मैं

आपको देखने के लिऐ  चला आया।

दोनों कुछ देर तक इधर उधर की बातें करते रहे। फिर दामोदर बोला- मालिक शरीर कितना सूख

गया है आपका, ढंग से खाते पीते नहीं हैं क्या....?

परमानंद बाबू फीकी हँसी के साथ बोले-आज कितने दिनों बाद किसी ने मुझे इतने गौर से देखा

है... दामोदर बता किसके लिऐ  अब शरीर पर ध्यान दूँ ... अब इसकी ज़रूरत न तो मुझे है और

न ही किसी और को...। जिन्हें ज़रूर त थी, वो तो अब हैं नहीं....।

दामोदर- नहीं मालिक, जब तक आप इस संसार में हैं, इस शरीर का ध्यान रखना आपका धर्म

बनता है।

बड़े मालिक बोले - दामोदर तू बड़ा सीधा है रे.....अब तो धर्म अधर्म पैसों से तुलने लगा है।

वो बोला- मालिक आप जो चाहे कहिऐ पर मुझे लगता है कि कोई आपका ध्यान रखने वाला

नहीं है।

परमानंद बाबू ने पूछा- तूझे कैसे पता?

दामोदर बोला- बड़े मालिक, जब आग लगती है तो धुआँ दूर से ही दिखता है।

वह दामोदर का चेहरा देखते ही रह गऐ । फिर सँभलते हुऐ  बोले- नहीं रे, ऐसी बात नहीं है...

गिरिधर, शशिधर हैं... सभी अपने ही तो हैं... अपना ख़ून है, सभी मेरा बड़ा ध्यान रखते हैं... मैं

आराम से हूँ ।

उधर रामपुरवाली को अंदाज़ा हो गया था कि आज परमानंद बाबू का कोई हितैषी आया है। उसने

बड़े बेटे को भेजकर पता लगा लिया कि दामोदर आया है। इसलिऐ  आज उसने बड़े अच्छे ढंग से

थाली सजाकर अपने ’’दादा ’’ के लिऐ  ले आयी।

किसी को देखकर नारी अपने व्यवहार को इस तरह बदल देती है कि वास्तविक स्थिति का

अंदाज़ा  आसानी से नहीं लगाया जा सकता।

हाथ में थाली, चेहरे पर हल्की मुस्कान और सिर पर आँचल लिऐ  बोली- अरे तुम, कब

आऐ ...पता ही नहीं चला... कितनी देर से भूखे प्यासे बैठो हो....अगर जानती तो कुछ जलपान

भिजवाती....। फिर बड़े भैया की तरफ मुड़कर बोली- क्या करूँ दादा, खाने में थोड़ी देर हो गई ...

अकेली जान काम करते करते देर हो जाती है... देखिऐ  आज मैं आपकी पसंद की सब्जी भी नहीं

बना पायी।

परमानंद बाबू भी समझ रहे थे कि इस सहृदयता का क्या कारण है। लेकिन उन्होंने न तो कुछ

कहा और न ही चेहरे पर कोई भाव आने दिया। बस सामान्य होकर भोजन करने लगे।

रामपुरवाली भी आग्रहपूर्वक भोजन करा रही थी। दादा आप तो खीर खा ही नहीं रहे हैं... और ये

भाजी अच्छी नहीं लगी क्या...? देखिऐ  तो चेहरा कैसे सूख गया है। फिर दामोदर से बोली- बड़ी

दीदी के बाद तो तुम हमें गैर ही समझने लगे... इतनी देर से बैठे हो और अभी तक हाथ मुँह

भी नहीं धोया...। तुम्हें भी तो भूख लगी होगी लेकिन तुम तो इन्हें बिना खिलाऐ  खाओगे

नहीं...। अब इनका खाना भी हो गया, चलो तुम भी खा लो। इतनी दूर से आऐ  हो, थके होगे...।

यह सब कहते हुऐ  रामपुरवाली दामोदर को भोजन कराने के लिऐ  अपने साथ लेकर चली गई ।

अतिथि देवोभव की भाव उक्ति को ध्यान में रखकर रामपुरवाली बड़े प्रेम से उसे भोजन करा रही

थी। बीच बीच में उसके घर परिवार के बारे में भी पूछती रही। साथ ही यह भी जताती रही कि

मँझले भैया के ध्यान नहीं देने पर भी किस कदर वह, उसके पति और बच्चे परमानंद बाबू का

ध्यान रखते हैं। यह सब वह धन के लोभ से नहीं बल्कि धर्म समझ कर रही है।

दामोदर भी नारी माया को समझ नहीं पाया और संतुष्ट हो गया कि उसके बड़े मालिक की

स्थिति ठीक है।

दामोदर को लौटे कई दिन हो गऐ  और परमानंद बाबू की स्थिति पुनःमूषको भव की हो गई

थी। भोजन और अन्य कामों में देरी के साथ व्यंग्य वाणों की वर्षा भी तेज़  होने लगी।

सुलक्षणा को जब से इस बात का अंदाज़ा  हुआ कि बड़का बाबू केवल हाथी के दांत हैं, वह

अंदर ही अंदर ख़ुश  हो गई । पिता- पुत्री ने सोचा कि भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है।

लेकिन ’’बेचारी’’ रामपुरवाली क्या कहकर ख़ुद  को समझाती। कभी कभी उसे अपनी बुद्धि पर ही

गुस्सा आने लगता। अब तो उसे यह बोझ न तो उतारते बनता और न ही संभा लते। मन ही मन

सोचने लगी कि हाथ कुछ आया भी नहीं उलटे सुलक्षणा से संबंध खराब हो गया। एक वही तो है

जो अच्छा बुरा वक़्त  पड़ने पर साथ दे सकती है। अगर वह अपने बाप के घर रहती है तो इसमें

उसका क्या जाता है। उससे तो संबंध सुधार कर ही रहना चाहिऐ । उसने एक बार फिर अपनी

बुद्धि का उपयोग शुरू किया और धीरे धीरे सुलक्षणा के मन में अपने प्रति आयी कालिमा को

दूर करने में लग गई ।

नारी ही नारी की मति समझ सकती है। उसे भी आभास हो गया कि छोटकी चाची संबंध

सुधारने में जुट गई  हैं तो उसने भी मन में विचार किया कि जब यहाँ  रहना है तो मिलजुल कर

रहने में ही फ़ायदा है। सो उसने भी छोटकी चाची के बढ़े हाथ को थाम लिया।

इस बीच दामोदर कई बार आया और उसे धीरे धीरे बड़े मालिक की फीकी हँसी  तथा उदासीनता

और छोटी मालकिन की चतुराई का अंदाज़ा  होने लगा। अब वह अपने बड़े मालिक से मिलने

जल्दी जल्दी आने लगा। एकाध दिन रूककर उनकी सेवा करता, फिर चला जाता।

एक दिन सुलक्षणा और रामपुरवाली अपना अपना काम निपटा कर आपस में बातें कर रही थीं।

सुलक्षणा बोली- क्यों चाची दामोदर फिर आया है क्या...? रामपुरवाली ने जवाब दिया- अरे

उसका क्या है, आने जाने में तो ख़र्च  लगता है नहीं...., दो चार कोस ही दूर उसका घर है....।

जब मन हुआ, हाथ हिलाते हुऐ  आ गया..। थोड़ा बहुत तो खाता नहीं, पूरे सेर भर अनाज तो

एक बार में खा जाता है... । फिर रूकर बोली, बड़े भैया भी तो मना नहीं करते.... उनको तो यह

सोचना नहीं है कि घर गृहस्थी कैसे चल रही है...बिना हाथ पैर हिलाऐ  खाना मिल ही जाता है,

ऊपर से बात करने वाला भी मिल जाऐ  तो क्या बुरा है.... इन्हें तो आगे नाथ न पीछे पगहा....

एक मैं अकेली जान घर गृहस्थी संभालूँ या अतिथि महाराज की सेवा करूँ ....। कहते कहते

रामपुरवाली ने देखा ही नहीं कि कब दामोदर पीछे आकर खड़ा हो गया। उस पर नज़र  पड़ते ही

उसकी आँख़ों  से चिंगारी निकलने लगी जैसे उसे अपनी आँख़ों  से ही भस्म कर देगी। तमक कर

बोली- अरे दामोदर तू खड़ा हमारी बातें सुन रहा है.... तुझे इतनी भी शर्म ....।

बीच में ही दामोदर बोल उठा- नहीं, छोटी मालकिन, ऐसी बात नहीं है मैं तो.....।

सुलक्षणा ने भी देखा कि चाची का साथ निभाने का अच्छा मौका है। वह भी उबल पड़ी- एक तो

चुपके से बातें सुनता है, उपर से जुबान भी लड़ाता है... चाची इसकी हिम्मत तो देखो।

रामपुरवाली सहारा पाकर और भी बलवती हो गई । बोली- अरे इसे इतनी बुद्धि कहाँ ..... लेकिन

बड़े दादा हैं कि इसे सर पर चढ़ाऐ  रखते हैं....। दामोदर भी इस बार चुप नहीं रह पाया। आवेग

में बोल पड़ा- देखो छोटी मालकिन, एक तो मैं चुपके से आपकी बातें सुनने नहीं आया था। बड़े

मालिक को खाना देकर आप बैठ गयीं। उन्हें थोड़ी दाल चाहिऐ  थी, वही कहने आया था....।

दूसरी बात आपको जो कुछ कहना है मुझे कहिए। बड़े मालिक के बारे में कोई उलटा सीधा शब्द

नहीं सुन सकता....।

चाची को उकसाने के लिऐ  सुलक्षणा हाथ नचाती हुऐ  बोली- अरे दैया, अब तो नौकर चाकर भी

घर के मामले में बोलने लगे हैं...।

अकेले में अगर छोटी मालकिन से दामोदर ऐसी बातें करता तो शायद उसे उतना गुस्सा नहीं

आता। लेकिन सुलक्षणा के सामने अपनी बेज्जती उसे कई गुणा अधिक लगी। धधकते हुऐ  बोली-

बड़ा आया बड़े मालिक की तरफ़दारी करनेवाला... लगता है अपना सारा धन तुझे ही दे दिया है

जो इतना ऐंठ रहा है....।

एक बार जब मुँह खुल जाता है तो फिर दुहरा कर बोलने में संकोच नहीं रह जाता। दामोदर भी

बोलने लगा- बड़े मालिक ने मुझे क्या दिया है, आपको क्या पता.... उन्हीं के कारण तो आज

मैं.....।

सुलक्षणा और रामपुरवाली, दोनों को संदेह हो गया कि परमानंद बाबू ने अपना बहुत

सारा धन चुपचाप इसे दे दिया है। इसी वजह से यह आज बहुत सुखी है और दौड़ दौड़ कर लोभ

से आता भी रहता है। दोनों अपनी आशंका और व्यग्रता को छिपा नहीं सकीं। एक साथ बोल

पड़ीं- ज़रा  मैं भी सुनूँ, आखिर तुझे ऐसा क्या दे दिया है कि रातदिन उनका ही गुणगान करता

रहता है....।

दामोदर बोला- जब मैं बहुत छोटा था, तभी से इनके यहाँ  रहता हूँ । बचपन में ही मेरी माँ मर

गई । पर बड़ी मालकिन ने मुझे इतने दुलार से रखा कि मुझे अपनी माँ की कभी याद भी नहीं

आयी। बड़े मालिक ने मुझे थोड़ा बहुत पढ़ना लिखना सिखाया जिसके कारण मैं आज अपनी

बिरादरी में 10 लोगों के बीच उठ बैठ सकता हूँ । उनके बीच मेरी कुछ इज्जत है..... उन्हीं का

पाला यह शरीर है जिसके कारण मैं अपने खेतों पर काम करता हूँ  और अपने परिवार को

संभालता हूँ ...। लेकिन छोटी मालकिन ये धन आँख़ों  से नहीं दिखता... और आपको तो आँख़ों  से

दिखने वाला ही धन चाहिऐ ...।

रामपुरवाली भी इन सब बातों में आने वाली नहीं थी, बोली- जब इतना कुछ दे ही दिया है तो ले

जा अपने बड़े मालिक को अपने साथ.... जब बिठाकर खिलाना पड़ेगा तब पता चलेगा कि कौन

सा धन काम आता है। जब पास से एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी तो तब हम भी देखेंगे कि

बड़े मालिक बड़े मालिक की रट कहाँ  जाती है।

दामोदर ने शांत स्वर में कहा- मैं भी तो यही चाहता हूँ । पर उनसे कहने की हिम्मत नहीं

होती...। कहता हुआ वह वहाँ  से चला गया।

परमानंद बाबू आज तो बहुत ही व्यथित हो उठे। उन्होंने सभी बातें अपने कानों से सुन ली थी।

वह बार बार अपने ख़ून के रिश्तों के बीच अपनों को ढूँढ़ रहे थे। पर इतनों के बीच एक भी ऐसा

नहीं मिला जो अपना हो। सभी उनसे बहुत दूर थे और पैसों की डगर पर चलकर ही उन तक

पहुँच सकते थे। पर यह डगर बनाने की उनमें न तो हिम्मत रह गई  थी और न ही कोई

इच्छा।

रात में उनका खाना लेकर गिरि का बड़ा लड़का आया पर आज खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं

थी। इसलिऐ दाँत दर्द का बहाना करके भोजन लौटा दिया।

जब बच्चा बहुत रोकर थक जाता है तो हल्की सी थपकी भी उसे नींद की गोद में पहुँचा देती

है। यही हाल उनका हो रहा था। घरवालों की ताड़ना और हृदया तथा शुभी की यादों ने उन्हें

आज इतना थका दिया कि वह बेहाल हो चले। इतने में रामपुरवाली खाना लिऐ  दनदनाते हुयी

पहुँची और विकराल रूप में बोल पड़ी- भोजन लौटाने का मतलब मैं नहीं समझी... इस उम्र में

नाज़-नखरे दिखाने का क्या मतलब रह गया है। अगर आज बड़ी दीदी होती तो उनके आगे

आपका नाटक चल जाता.... बूढ़े हो जा रहे हैं और बुद्धि बच्चों जैसी होती जा रही है... पता

नहीं वो मेरे माथे आपको मढ़कर क्यों चली गई ... काम के न काज के, दुश्मन अनाज के...।

सुनाते हुऐ  वह जिस गति से आयी थी, उसी गति से चली गई । उसने न तो एक बार भी खाने

का आग्रह किया और न ही दाँत दर्द के बारे में ही पूछा.....। उसे क्या पता, किसी के ऊपर क्या

गुज़री होगी।

जब हृदय रोता है तो आँख़ों  से आँसू नहीं शरीर का सारा रक्त बह जाता है। फिर शरीर में न तो

प्राण शेष रह जाते हैं और न उत्तेजना। परमानंद बाबू की भी स्थिति हो गई । दामोदर उनके

आँसू देखकर विह्वल हो उठा। उसने आज तक अपने मालिक की आँखों में आँसू नहीं देखे थे।

अपने आप को संभालते हुऐ  कहा - मालिक अब और किस चीज की उम्मीद है, इसके अलावा

यहाँ  से। और कुछ नहीं मिल सकता....। इस तरह भूखे प्यासे यहाँ  कितने दिन और किसके लिऐ

रह पाऐंगे...।

वह गंभीरता से बोले- तू परेशान क्यों होता है रे...। मैं भूखा प्यासा कहाँ  हूँ ....। हृदया के जाने के

बाद ये आँसू ही मेरी भूख प्यास मिटा देते हैं....। पूछते हो कि मैं यहाँ  किसके लिऐ  हूँ ... सच

कहते हो...। अब मेरा कोई अपना तो है नहीं... और न ही मुझे खोजते हुऐ  यहाँ  कोई आने वाला

है....। लेकिन अब इस उमर में भी कहाँ ...। यहाँ  रहकर कम से कम हृदया और शुभी को अपने

करीब महसूस करता हूँ । इस घर से यादें जुड़ी हुयी हैं...। मेरा बचपन भी इसी घर में गुज़रा

है...। इनका मोह मुझे कहीं भी चैन से नहीं रहने देगा... वैसे भी इस दुनिया में मेरे लिऐ  बैठा ही

कौन है....?

भावुक स्वर में दामोदर बोला- ऐसा क्यों कहते हैं मालिक... इस घर में न सही, घर से बाहर

कोई तो होगा, अगर कोई नहीं तो मैं तो हूँ ....।

परमानंद बाबू आश्चर्यचकित होकर बोले- दामोदर तुम मेरा बोझ उठा पाओगे... मेरे पास तो कुछ

भी नहीं है रे.... मैं तुझे कुछ नहीं दे पाऊँगा।

दामोदर बोला- मालिक, आपने इतना कुछ दिया है कि और कुछ लेने के लिऐ  मेरे पास जगह ही

नहीं है...। बस आप मेरे साथ चलिऐ ...। मेरे दो बच्चे हैं, आपका मन लगा रहेगा, पास में स्कूल

भी है, मन होगा तो वहाँ  पढ़ा दिया कीजिऐगा।

परमाँ द बाबू सहमत नहीं हुऐ । बोले- दुनिया क्या कहेगी...? दामोदर हँसते हुऐ  बोला- मालिक

दुनिया तो किसी भी हाल में बोलेगी, अगर कोई मर गया तो बोलेगी बेचारा मर गया और अगर

जीवित रह गया तो कहेगी कि पता नहीं कब मरेगा....।

बड़े मालिक बोले- .... लेकिन.....?

दामोदर फिर बोला- मालिक अपने लिऐ  नहीं तो मेरे लिऐ  ही चलिऐ ... कम से कम आँख़ों  के

सामने देखकर मुझे तो शांति रहेगी।

अमावस की रात की सुबह का ब्रह्ममुहूर्त, आकाश से तारे विदा होने लगे, और परमानंद बाबू भी

अपनों से, अपने घर से विदा होने लगे। घर के सभी प्राणी सोए हुऐ  थे, पर खूँटे से बँधी गाय

घर के इस मालिक को विदाई देने लगी। दोनों की आँखें झड़ने लगीं। परमानंद बाबू ने गाय के

पास जाकर उसे चूमा और प्यार से सहलाते हुऐ  फिर कभी नहीं स्पर्श करने वाली अनुभूति से

बार बार छूकर कर आगे बढ़ने लगे। गाय उन्हें माता की तरह विदा करने लगी। कभी कभी

मनुष्य से अधिक अपना जानवर ही हो जाता है। लेकिन छोड़ना इतना आसान होता तो फिर

दुनिया में मोह माया के लिऐ  कोई जगह ही नहीं रहती। जब कुछ छूटता है तो माया उसे

कसकर पकड़ने लगती है। इस बार शरीर के साथ आत्मा भी रो पड़ी। उन्हें माँ की याद आने

लगी.... इसी घर के आँगन में तो वह माँ  का आँचल पकड़ कर गिरते...सँभलते थे। गिरने पर माँ

कहती थी- उठेगा नहीं तू....? फिर प्यार से सहारा देकर उठाती थी। माँ ... आज मैं फिर गिर पड़ा

हूँ .... उठाओगी नहीं... मुड़कर देखा, तो लगा जैसे माँ  बुला रही है...। उन्होंने ख़ुद  को संभाला,

सोचा माँ होती तो शायद......। फिर अपने को मजबूत कर एक एक पग बढ़ाने लगे। शरीर तो

कहना मान भी लेता है लेकिन चित्त तो चंचल होता है। वो फिर मुड़कर घर की ओर देखने लगे,

सोचा- इसी घर में हृदया कितनी बेचैनी से उनके आने का इंतेज़ार  करती थी, उनके वापस आने

पर कितनी अधीरता से पूछती- इतनी देर क्यों कर दी.... याद भी नहीं रहता कि कोई इंतेज़ार 

कर रहा है...। मन ही मन बोल पड़े-हृदया अब इंतेज़ार  नहीं करना, अब यहाँ  नहीं आऊँगा... खाने

के लिऐ  इंतेज़ार  नहीं करना, मैं भूखा ही जा रहा हूँ ... अब यहाँ  नहीं आऊँगा। फिर उन्हें आभास

हुआ कि जिससे वह बातें कर रहे हैं, वह तो कब की घर छोड़कर जा चुकी है...। अगर कहीं इसी

घर में आकर  इंतेज़ार  करेगी और मेरे नहीं रहने पर कितनी परेशान होगी.... नहीं....नहीं...... लौट

चलता हूँ ....। इसी घर में मैं उसका इंतेज़ार  करूँगा।

उन्हें अपने आप में खोया देकर दामोदर ने टोका - मालिक क्या सोच रहे हैं....? उनमें इतनी

शक्ति नहीं बची थी कि कुछ जवाब दे पाते। अन्मयस्क होकर बोले- कुछ नहीं.... फिर अपने

शरीर को खींचने लगे। धीरे धीरे बढ़ ही रहे थे कि लगा जैसे शुभी पीछे से पुकार रही हो...

बाबूजी, चुपके से मुझे छोड़कर कहाँ  जा रहे हैं....। पैर अपने आप रूक गऐ , आँखें फिर मुड़कर

उसी घर को देखने लगीं, लगा शुभी अपनी माँ  की गोद में मचल रही है साथ आने की जिद कर

रही है। लहरों के बीच से जब आदमी  ख़ुद  को किसी तरह खींच कर आगे बढ़ता है, लहरें बार

बार अपनी ओर खींचने की कोशिश करती रहती हैं। वही मनःस्थिति परमानंद बाबू की हो रही

थी। सोचा- इसी घर से मैंने अपना हर चीज खोया और पाया... अपने आप को इनसे अलग

लेकर कहाँ  जा रहा हूँ ... नहीं लौट चलता हूँ ....। अगर आज ये सभी होते तो मुझे इस तरह जाने

की क्या ज़रूरत होती....मरने के बाद तो घर छोड़ना अपने हाथ में नहीं रहता... पर आज तो

सशरीर ही घर छोड़कर जा रहा हूँ ...। यही सोचकर धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे। दामोदर उनकी

स्थिति को अच्छी तरह से समझ रहा था। वह भी धीरे धीरे चल रहा था।

थोड़ी देर बाद पीछे मुड़कर देखा तो गाँव पीछे छूट गया था। गाँव के बाहर का यह बगीचा जिसे

उन्होंने ही लगवाया था। आम कटहल और न जाने कितने पेड़ लगाऐ थे, कितने स्नेह से हर

पौधे को वृक्ष बनाया था। आज वे पेड़ अपनी जगह पर स्थिर रहने के लिऐ  विवश थे। लेकिन

उनकी हर पत्ती जैसे उन्हें रोकने की कोशिश कर रही थी। कुछ तो झड़ कर उनके पैरों के नीचे

आकर रोकती, पर वह उसे आँसू से सींच कर, आग्रह को ठुकराते हुऐ  अपने को खींचे ले जा रहे

गाँव  के बाहर ग्राम देवी का मंदिर जो गाँव  के अपने सभी संतानों की रक्षा करती हैं। माता हैं

सबकी। गाँव  का कोई भी आयोजन, उत्सव इनकी आराधना के पूरा नहीं होता..... लेकिन माता,

आज तुम्हारी यह संतान तुम्हारी छाया से दूर जा रहा है.... शायद दोबारा इधर नहीं आ सकूँ ....

लेकिन माँ , मुझे भूल नहीं जाना....। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर, आँखें बंद कर आंसू का अर्घ

देकर उन्हें प्रणाम किया, फिर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे।

गाँव  की अंतिम निशानी बूढ़ा बरगद - यहीं से गाँव  की सीमा समाप्त मानी जाती है। यहीं आकर

उन्होंने शुभी को विदा किया था। इसी सीमा पर आकर वह इस गाँव  के लिऐ  परायी हो गई  थी।

विवाह के बाद बेटी परायी हो जाती है, यही कहकर उनके मित्र और स्वजन उन्हें घर ले गऐ  थे।

मानव जीवन में कभी ऐसा पल भी आता है जब बुद्धि, विवेक स्थिर होकर बैठ जाते हैं और

भावना अँगुली पकड़कर आगे आगे चलने लगती है, मनुष्य उसके पीछे पीछे। सोचते सोचते

परमानंद बाबू उस पेड़ के नीचे बैठ गऐ , दामोदर चलते चलते थोड़ा आगे निकल गया। मुड़कर

देखा कि बड़े मालिक उस बरगद के नीचे बैठे हैं। वह भी उनके इंतेज़ार  में एक पेड़ के नीचे बैठ

परमानंद बाबू सोचने लगे- इस बरगद के हाथ में केवल विदाई ही देना लिखा है क्या....? लेकिन

यह सबको एक जैसी विदाई कहाँ  दे पाता है...। जब शुभी विदा हुयी थी तो कितने लोग आऐ  थे,

यहाँ  तक उसे छोड़ने..... उसके मन में भी एक आशा थी कि कुछ दिनों के लिऐ  ही सही, वापस

गाँव  में तो आ सकेगी। माँ  पिताजी का स्नेह तो पा सकेगी...। और जब हृदया चली गई  तो

कितने लोग आऐ  थे, उसे अंतिम विदाई देने। उसके चेहरे पर भी संतोष था कि वह अपनों के

बीच से, मेरे बीच से जा रही है....। बेटी का विदा होना सुख की बात है कि वह अपने घर जा

रही है, अब उसका अपना संसार होगा....। हृदया का विदा होना तो कष्टप्रद था, पर संतोष इस

बात का था कि सुहागन गई  ....। पर मेरी विदाई, ये कैसी विदाई है, विदा करने वाला कोई

नहीं.....। ;अगर शुभी होती तो उसे लगता, माँ  बाप ने विदा किया है, अपने घर जा रही हूँ .....।

अगर हृदया होती तो उसे लगता कि पति ने अंतिम विदाई दी।

पर मैं क्या कहकर अपने को संतोष दूँ ....। आज मुझे विदा करने वाला कोई तो नहीं.... न तो

कोई अश्रुपूर्ण नेत्र जो मेरे जाने के बाद मुझे खोजेंगे..... सोचते सोचते उनके ही आँसू उन्हें विदाई

देने लगे। उन्हें लगा कि शुभी अपने छोटे छोटे हाथों से अपने बूढ़े बाप के आँसू पोंछ रही है।

कभी माँ -बाप के सामने संतान बच्चा होता है तो कभी संतान के सामने माँ -बाप भी बच्चे हो

जाते हैं। मन ही मन बोले- बेटी अगर आज तुम होती तो मुझे इस तरह भटकना नहीं पड़ता.....।

तुम्हारे जन्म के साथ ही एक आशा बँधी थी कि बुढ़ापे का सहारा बनोगी, पर .....। लेकिन शुभी

तो उनकी बातों पर धीमे धीमे मुस्कुरा रही थी, जैसे छोटे बच्चे को कितनी भी बातें सुनाओ, पर

वह अपनी धुन में एक नहीं सुनता। शुभी भी वैसा ही कर रही थी। परमानंद बाबू ने उसे पकड़ना

चाहा पर वह दौड़कर भाग गई , उस पेड़ के नीचे जाकर रूकी जहाँ  दामोदर बैठा था, फिर

पलटकर बाबूजी को देखा और थोड़ा रूक कर दामोदर में मिल गई । परमानंद बाबू को लगा कि

शुभी ही दामोदर बनकर उस पेड़ के नीचे उनका इंतेज़ार  कर रही है।

थोड़ी देर वह सोचते रहे, धीरे धीरे उनकी विभ्रम की स्थिति दूर होने लगी। जब वह अपनी

चेतना में लौटे तो लगा कि दामोदर ही तो शुभी है जो मेरा इंतेज़ार  कर रहा है। फिर एक

आवाज़  आयी जिसमें नारी स्नेह और पुरूष की सांत्वना दोनों थे। ’’ चलिऐ  अब...’’ उन्हें लगा कि

यह शुभी और दामोदर दोनों की मिश्रित आवाज़  है। उसी आवाज़  के सहारे वह उठे और चल पड़े।

 

 

 


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