अंधविश्वास
अंधविश्वास
बात उस समय की है जब मैं 7वीं कक्षा का छात्रा था। उन दिनों में मुझे इतनी समझ भी नहीं थी, बस देखते ही रह गया क्या हो गया है। मैने दादा जी को ऐसा क्या कह दिया ।
बस बात इतनी सी थी, दादा जी ने गांव से बाहर किसी, जरूरी कार्य से बाहर जाना था। पीछे से घर में आवाज़ लगाई बच्चे ने दादा जी आप शहर जा रहे हो, शहर आते वक्त मेरे जूते लेते आना, मेरे जूते फट गये हैं जरूर लेकर आना दादा जी। बच्चे की आवाज़ सुनकर दादा जी ने बच्चे को समझाया, घर बाहर जब किसी भी जरूरी कार्य के लिए जाए तो आवाज़ नहीं लगाते। अपशुकुन होता है, दादा जी बच्चे को डाँट लगाई और कहने लगे आइन्दा इस तरह से आवाज़ नहीं लगानी है। बच्चा दादा जी कुछ नहीं बोला लेकिन मन में सोचता रहा। ये सब कैसे हो सकता है। पूरा दिन इसी विचार में बीत गया। शाम को जब दादा जी शहर से गांव आये और घर आते ही सबको इकट्ठा करके कहने लगे। आइन्दा कभी भी इस तरह जाते वक्त मुझे टोकना नहीं है। आज संदीप ने मुझे आवाज़ लगाई थी। आज संदीप की वज़ह से मेरा कचहरी का काम नहीं हुआ। उपर से पूरा दिन मेरा खराब गया। दादा जी को मैं कुछ कह नहीं पाया क्योंकि घर के सबसे बड़े बुजुर्ग है (सदस्य हैं) लेकिन मैं मन ही मन सोचता रहा ऐसे कैसे बुरा हो सकता है। मैंने तो दादा जी को बस यही कहा था, शहर से आते वक्त मेरे जूते लेते आना। मेरे जूते फट गये हैं उससे दादा जी काम कैसे रूक सकता हैं
काफी समय तक मेरे मन में वो बात घुमती रही।
हमें किसी भी काम के लिए दूसरे सदस्यों को दोषी नहीं ठहराना चाहिए। काम अगर पूरा नहीं हुआ तो उसके पीछे से आवाज़ देना नहीं था। बल्कि कचहरी में दादा जी पूरे कागज़ात पूरे दे नहीं पाये थे। काम दादा जी की भूल के कारण रूका था।
हमें अंधविश्वास में जाने से पहले उस काम का कारण समझ लेना चाहिए। न कि हमें दूसरों को उस काम का दोषी ठहराना चाहिए ।
अंधविश्वास भी इक हद तक ही अच्छा उससे ज्यादा अंधविश्वास हमेशा हमारे समाज और देश को खोखला करता है। बगैर समझें, जाने, हमें किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँचना चाहिए ।
अंधविश्वास को छोड़ो और उस वजह को समझो, जिसके कारण हमारा कार्य पूर्ण ना हो सका ।
