ये जीवन..!!!
ये जीवन..!!!
कितना विचित्र है ये जीवन !
जहां सिर्फ जन्म से मृत्यु तक ही होता है बंधन।
कितना विचित्र है ये जीवन.....
शिशु के जन्म लेने से हर्षित हो उठता है मन,
कितना आह्लादित कर देती है उस कोमल वपु की एक छुअन,
निज प्रांगण में उसकी क्रीड़ा को नजरबंद करने को आतुर नयन।
लुटा देते हैं उस स्नेहिल पर बेशुमार अपनापन,
वांछित हैं कि विषाद से रहित हो इसका बचपन।
कितना विचित्र है ये जीवन......
सभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित हो जाए वह,
जिंदगी की हर पाठशाला में अव्वल आए वह,
जो उन्हें ना मिला वो भी पा जाए वह,
पर हौले हौले,
मासूमियत से निर्लिप्त हो, स्वार्थमय हो जाता है वह,
बस! यही से उजड़ जाता है अठखेलियों का यह निरीह चमन।
कितना विचित्र है ये जीवन....
जब वह पूर्णतः दुनियादारी में सलंग्न होता है,
पर जनो हेतु अत्यंत शालीन होता है।
किन्तु जब मां बाबा का दिल चाहे उससे बतियाने को,
न जाने क्यों उसका कुछ अलग ही मिजाज़ होता है।
क्या इतना सुसंस्कृत व सुशील होता है यौवन?
कितना विचित्र है ये जीवन.....
फिर वह अपार दौलत - शोहरत की दुनिया में प्रविष्ट होता है,
तब स्व संतान व भार्या का हित साधना ही उसका अभिष्ट होता है।
जिन अपनों ने महकाया था उसका सुखमय गुलशन,
हताशा की चादर ओढ़ देख रहे हैं वे निज सुश्रुषा का स्वप्न,
उनकी मृगतृष्णा सा स्वप्न बन जाता है उनकी उलझन।
कितना विचित्र है ये जीवन.....
किंचित् समयांतर परिस्थिति बदल जाती है,
अपनेपन के भ्रम की हथकड़ियां उसे भी जकड़ जाती है।
वह उनको तोड़ने के लिए हर शह से गुजर जाता है,
पर जब वह तलाशता है इसका कारण तो, उसे अपना ही अतीत याद आता है,
अनावश्यक ही; पश्चाताप की अग्नि से संतप्त हो उठता है तन मन।
कितना विचित्र है ये जीवन....
जरा सोचो कि क्यों होती है जीवन में विषाद कंटको की चुभन,
जरा बोलो की क्यों करते हैं हम व्यवहरित मर्यादाओं का उलंघन।
जरा देखो की क्यों होता रहा है हमारे अपनों के अपनेपन का दमन,
जरा कह दो कि अब से करेंगे निज दायित्वों का निर्वहन ,
समझकर, समझाकर संभल जाए अगर तो,
महक उठेगा हमारा प्यारा - सा जीवन मधुबन।
कितना विचित्र है ये जीवन.....
जहां इक ओर अपकर्ष हैं तो दूसरी ओर है उन्नयन,
कितना विचित्र है ये जीवन,
जहां जन्म से मृत्यु तक ही होता है बंधन,
कितना विचित्र है ये जीवन।
