वक़्त की दोराह
वक़्त की दोराह
ज़िन्दगी के साथ
ये शुरू होती है,
पर क्या कभी
ख़त्म भी होती है?
ये वक़्त की दोराह...
रात की सीढ़ियों पर
अलसाते हुए ख़्वाब
अक़्सर यही सोचते हैं,
"पलकें खोलूँ या भ्रम में ही जी लूँ?"
हाँ, यही तो है,
वक़्त की दोराह...
कभी अनजान राह पर,
ये क़दम बार-बार
पलट कर देखते हैं,
उन्हें ग़लतफ़हमी है,
कि कोई कभी तो उन्हें रोकेगा!
हाँ, शायद यही तो है,
वक़्त की दोराह...
ख़ुशियों की धूप आती है,
डर की परछाई के साथ...
ये चेहरा तो हँसता है, पर
आँखों से झाँकतें हैं डर हजार!
हाँ, यही है,
वक़्त की दोराह...
ये रिश्ते...ये रस्में...ये समाज...ये वादे,
बेड़ियाँ डाल देते हैं
हमारे मन के नाज़ुक पैरों में,
ये तमाम बंधन तोड़कर,
हम कहीं दूर भाग जाना चाहते तो हैं,
पर आज़ाद होने से डरते हैं,
हाँ, यही तो है,
वक़्त की दोराह...
किसी को चाहने,
किसी सिलसिले के बाद,
जब पड़ता है उसे भुलाना,
दिल रोता है,
एक सहमी हुई चिड़िया की तरह,
भीगी नज़रों से,
पिंजड़े से बाहर झाँकता है।
दिमाग शिकारी बन जाता है,
और हमारी सोच पर
'अहं' का चाबुक चलाता है।
हाँ, यही तो है,
वक़्त की दोराह...
अपनों से लड़ना, आसान तो नहीं...
ग़ैरों पर भरोसा, आसान तो नहीं...
पर आसान ये 'ज़िन्दगी' भी तो नहीं!
मुश्क़िलों के भंवर में कश्ती चलाना,
कड़वे सच के घूँट पीते जाना,
हाँ, यही तो है,
वक़्त की दोराह...
एक मोड़ आता है,
जब हम 'वो' नहीं रहते
'जो' हम थे।
हम 'वो' बन जाते हैं,
'जो' हमें कभी बनना ही नहीं था।
और शायद,
इसी को कहते हैं,
वक़्त की दोराह...