विडंबना इंसानों की
विडंबना इंसानों की
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लगाते हैं सपनों का पेड़,
खाते हैं गुलामी का फल !
दुनिया है संभावनाओं का महल,
इच्छाएँ बन रहीं राजकुमारी
हठ कर रही,
विचार-आचारों के विधान में
भावनाओं से हुकूमत चला रही !
संतुष्टि हरकतों की मंजिल,
सदगुणों की फुलवारी
अहंकार कुचल रहा,
जन-कल्याण के संस्थान में
स्वार्थ पाँव अड़ा रहा !
मेहनत है कामयाबी का आधार,
जीवन की पहेली
उलझनें बढ़ा रही,
स्पार्धा के मैदान में
चुनौतियों की कतार लगा रही !
प्रेम है इंसानों की राह,
बंधन की कड़ी
मुसाफिर कमजोर कर रहा,
संबंधों के महफिल में
नफरत का अभिनय चल रहा !