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प्रदीप कुमार तिवारी

Others

5.0  

प्रदीप कुमार तिवारी

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ठूंठ

ठूंठ

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इक ठूंठ देखता मैं प्रतिदिन

पाक घर के झरोखे से।

खड़ा-खड़ा मैं सोचा करता,

जीवन के हर कोने से।।


टीन का डिब्बा बगल पड़ा,

खाली प्लास्टिक बोतल संग में।

इनकी कीमत कभी बहुत थी,

आज लिए हैं मिट्टी मुंह में।।


ठूंठ कभी छाया देता था,

फल देता था मधुर मधुर।

सूखे तन को दीमक खाते,

खाए थे फल मधुर मधुर।।


ठूंठ अभी यह मरा नहीं,

तन सूखा है पर काठ नहीं।

जीवन जड़ में जिंदा है,

हमको इसकी फिकर नहीं।।


जंग लग गया डिब्बे में,

खाली होते ही फेंका था।

मतलब अपना साध लिया,

तब सही सलामत फेंका था।।


बोतल अभी सलामत है,

दिन आगे बड़ा भयानक है।

धूप से इसको जलना है,

आह तनिक ना भरना है।।


फिर बारिश की बूँदें छनकेगी,

जले हुए तन पर टपकेगी।

झाड़ी उगेगी अगल बगल में,

सड़ी गली बदबू चिपकेगी।।



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