ताप नमी की
ताप नमी की
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ताप नमी की
लम्हों की नमी को महसूस किया था
जो तुम्हारी आँखों की कोर पर अटका था
तुम बहुत आगे निकल गए
अपना पूरा पीछे ही छोड़
उस नमी को बांध बैठी थी
अपने आँचल की छोर से इक गांठ बनाकर
कई बार चाहा की खोल कर देख लूं
पर उस नमी में बहुत ताप थी
सहसा ही सब कुछ राख कर देने कि क्षमता
संभाल नहीं पाती शायद मैं
पर अक्सर एक टुप देख लेती हूँ
हौले से.......
बारिश की उष्ण में
भाप बन जम गई थी
एक परत कांच की खिड़कियों पे
वहीँ लिख एक संदेश छोड़ आई थी
की बह जाये पानी में
और तुम तक पंहुचा दे
मेरे मन की बात
पर पानी इतना बरसा की बाढ़ में वो
संदेश जाने कहाँ डूब गया
सतः पर फिर लौटा ही नहीं
पर प्रतीक्षा है
तुम्हारे जवाब की