सुभद्रा
सुभद्रा
सूने नयनों से तटस्थ खड़ी थी,
सुभद्रा ले स्वागत की थाल,
राखी पर मधुसूदन आए,
नयन झुकाए बहन के द्वार,
मौन नहीं सेह पाए केशव,
बोल पड़े ले ह्रदय उद्ग़ार,
कंठ अवरुद्ध था- फिर प्रयत्न कर,
पूछ लिया बहन का हाल,
"भैया कैसी होगी वह स्त्री,
पुत्र रत्न अपना खोकर,
बस दिन अपने काट रहीं हूँ,
बोझिल स्मृतियों से लड़कर,
आज न मांगूंगी मैं तुमसे,
रक्षा का कोई वरदान,
मरुस्थल से मेरे जीवन में,
क्या मांगूं-कुछ बूंदों का दान,
रहता है मन मेरा व्याकुल,
भैया तुम से कुछ कहने को,
ह्रदय की पीड़ा से उद्घृत कुछ,
प्रश्नों के उत्तर पाने को "
माधव अब हो चले थे व्याकुल,
चिंतन में डूबे, सकुचाए से,
सुभद्रा के अप्रत्याशित प्रश्नों पर,
केशव थे घबराए से,
"क्या प्रेम से बड़ी मित्रता,
हो चली तुमको प्यारी,
जो ब्याहा मुझको अर्जुन से,
जान मेरी सारी नियति,
कोप अनल द्रौपदी का सहकर भी,
तुम पर न विश्वास डगा,
रक्षा के तुम्हारे वरदान पर,
भैया मुझको मान रहा,
और मिला पुत्र सौभाग्य पर,
वह भी कहाँ चिरकालीन रहा,
दे देते यदि तुम एक चेतावनी,
निद्रा का प्रभाव न मुझ पर रह पाता,
मैं जग कर तब सींच-सींच कर,
उसे सीखती हर वह ज्ञान,
जीवन मरण के विषम युद्ध में,
बस चाहिए था निद्रा का बलिदान,
सोच-सोच कर ग्लानि सहती,
काट रही जीवन पथ को,
अब पालक झपकने पर भी दिखती,
युद्ध भूमि की भयावह छवि मुझको
तुम ने तो विश्वरूप दिखा कर,
पति को मेरे दिया हर ज्ञान,
भोली माता से मौन रहे तुम,
क्या है यह गीता दृष्टान्त
सुन कर सजल हुए नेत्रों से
गोविन्द दुःख से अशांत हुए
बहन को अपने गले लगा कर
कुछ कहने का साहस कर पाए
"पुरुष का मन होता है दुर्बल,
अर्जुन का तुम से कैसा मेल,
सुभद्रे, मैं तो स्वयं याचक हूँ,
जन्म लिया, बस पाने तुम से,
प्रेम निःस्वार्थ और भक्ति निरत,
जो तुम करती रही मुझ से,
बिन विवाद कर जिसने अपनाया,
हर निर्णय को मेरे आग्रह पे,
बस यही अधिकार पाकर मैं तुम पे,
भविष्य नियोजन कर पाया,
अभिमन्यु तुम्हे दे कर ही सुभद्रे,
कौरव पराजय निश्चित कर पाया,
पुरुष का मन नहीं इतना निश्छल,
कि उससे पाता ऐसी आहुति,
माता से ही देव कर पाते,
अवांछित बलिदानों की विनती,
माता को क्या सिखलाऊँ गीता,
निष्फल कर्म को वह स्वयं जीती,
निज के शरीर का करके तर्पण,
सृष्टि में जीवन उपजाती,
तुम जैसी जब भी कोई माता,
देगी पुत्र का ऐसा बलिदान
हे सुभद्रे हर युग में होगा
माधव से बढ़कर उसका मान"
