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शेर-ग़ज़ल

शेर-ग़ज़ल

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मेरी कलम की रूह बेचैन है

कोरे कागज़ को तन्हा देखकर,

ज़िद है, कि अपने जिस्म की सारी स्याही इसकी सादगी पर क़ुर्बान कर दूँ,

और इसके नाज़ुक बदन को अपने रंग से रंग दूं

ताक़ि जब इस पर किसी की नज़र पड़े तो वो बोल उठे,

ये नज़्म नही बल्की ज़िंदा एहसास है जिसकी ज़िन्दगी सुख़नवर के पास है

ये हादसा भी बड़ा अज़ीब होता है,

बेचारे दंगे का भी क्या नसीब होता है!

इसके साथ भी यहाँ नाइंसाफी होती है क्यों कि इसके हिस्से में सिर्फ़ ग़रीब होता है

पत्थर फेंक सबने पगला कहा जिसे!

सीने से लगा के माँ ने लाडला कहा उसे

ये कैसे कह दूं, मैं अभी ख़ैरियत से हूँ

घर का चहकता आँगन और गाँव छोड़ के आया हूँ

कसम खाई थी के जाते वक़्त आँसू न गिरने देंगे

शुक्र है, इस बारिश ने मेरी लाज़ बचा ली

ग़ज़ल ज़िन्दगी का ये तज़ुर्बा सबसे अच्छा लगता है,

पहलू में उसके बैठ के धूप में भीगना अच्छा लगता है

पता है, उसके जुमले में जान नहींं है,

पर उसके बोलने की अदा अच्छी लगती है

हाँ ख़बर है, मुझे ये आवारगी है,

पर बेवजह उसके साथ घूमना अच्छा लगता है

आदत नहींं है फिर मुँह फुलाए रहता हूँ,

क्या है न उसके मनाने का अंदाज़ अच्छा लगता है

पसंद है फिर दुआ करता हूँ बारिश हो,

बारिश में उसे मुसलसल निहारना अच्छा लगता है

शैतानी देख कहती, खाना अब न दूँगी तुझे,

फिर मार मार के माँ का खिलाना अच्छा लगता है.


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