पारंपरिक स्त्री
पारंपरिक स्त्री
कहने को तुमसे, खुली किताब हूं मैं,
फिर भी हर पन्ने में उलझा, एक सवाल हूं मैं,
सृष्टि का आरंभ हूं, तो पालन का आधार हूं मैं,
अपने कोरे वजूद से शून्य ही सही,
पर अपने साथ से तुम्हारी पूर्णता का अहसास हूं मैं।
नाज़ुक ही सही, पर बेमिसाल हूं मैं,
कभी मां, कभी बहन, कभी संगनी तो कभी बेटी,
भिन्न रूप में बंटी, फिर भी एकता की ढाल हूं मैं,
हां, खुली किताब के हर पलटते हुए पन्नों में,
जमाने के लिए उलझा बेहतरीन सवाल हूं मैं,
अधिकारों के नारों में दबी मुस्कुराती हुई,
मुग्ध करती गुनगुनाती आवाज हूं मैं,
कभी पिता, कभी भाई, तो कभी पति,
हां, आज बेटे की भी मर्जी में ढलती, गुलजार हूं मैं,
मंदिरों में पूजती, तिजोरियों में छिपती,
पुरुषों की गालियों में सजती, अस्तित्व की जननी,
खुद की पहचान से रिक्त, चलते- फिरते अनगिनत सवाल हूं मैं,
हां दुलारी हूं सबकी, क़दमों से साक्षात् लक्ष्मी रुप हूं,
फिर भी जाने कितनी निगाहों की, बेशर्मी से तार- तार हूं मैं।
मेरी जिम्मेदारियां, बस कसौटी हैं मेरी,
पूर्ण कर दूं तो भी , मैंने क्या खास है किया?
और डूब जाऊं तो, बर्बादी की कर्जदार हूं मैं,
अपने कदमों से चलूं, तो भी किस्मत दूसरों की है लधी,
ऐसे तर्कहीन विचारों से बांधी हर दौर में,
अग्नि परीक्षा की मोहताज हूं मैं,
बंद आंखों में आते स्वप्नों में भी, मर्यादा से लिपटी,
लाजवंती, संस्कारों की प्रतिमूर्ति , समाज की आस हूं मैं,
नए परिवारों में, अनजानों के बीच रिश्तों को जोड़ती,
खुद के परिवार से विदा होते ही, अधिकारों को छोड़ती,
खुद में ही उलझी, अपनेपन को तलाशती, बेहताशा दौड़ती,
फिर भी परिवारों को तोड़ती, ऐसी ही यहां- वहां मशहूर हूं मैं,
चरित्र के चमकते रंगो से भरपूर मगरुर समाज में शून्य हूं मै,
फिर भी सर्वोत्तम की पैनी धार पर चलने को मजबूर हूं मैं,
बड़े- बड़े फैसलों से दरकिनार और कम समझदार,
रसोई के बजट से लेकर, कुलदीपक की पालनहार,
और सर्वोत्तम की मार्गदर्शक हूं मैं,
क्या वास्तव में इतनी पहेलियों से बनी भी, अस्तित्वहीन हूं मैं...?
या सिर्फ कोरे अहम पर भारी, हर पग पर अस्वीकारी,
प्रत्येक स्नेहिल रूप में ईश्वर की विशिष्ट कृति हूं मैं,
जानती हूं, ये अस्वीकारना एक छलावा है हर घड़ी,
फिर भी अपनों से छली, उनकी गलतियों से अंजान हूं बनी,
दर्द के समंदर को समेटे हुए खड़ी, फिर भी रिश्तों पर न्यौछावर हूं मैं,
जब भी होठों को सिले मुस्कुराते, खुद को झुठलाते हुए,
मै मिटती हूं सौ बार, तभी घर, घर नहीं , स्वर्ग कहलाते हैं
हां, जब भी तुमसे कहती हूं मैं कि खुली किताब हूं मैं,
भले ही हर पन्ने पर अनसुलझा एक सवाल हूं मैं।