नजदीकी में दूरियां
नजदीकी में दूरियां
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हम कहते भी तो उनसे क्या कहते
जब एक मुद्दतों बाद उनसे मिले थे
अल्फ़ाज़ तो लाखों थे उनसे कहने को
मगर सब के सब मेरे दिल मे छुपे थे ।
दिल मचल तो रहा था उनसे कहने को
पर दिमाग ने उस पर पहरा लगा रखा था
कहीं टूट न जाना, इसीलिए सम्भल जाओ
दिमाग ये कहकर दिल को डरा रहा था ।
हाल उनका भी शायद कुछ ऐसा ही था
होंठो पर कम्पकपाहट, मगर अल्फ़ाज़ न थे
बेचैनी थी और दिल भी था बात करने को
मगर दिमाग और गुस्ताख़ आंखे तैयार न थे ।
उठकर जा भी तो नहीं सकते थे दोनों
वो शख्श कोई पराया थोड़ी ना था
मगर साथ बैठते भी तो कैसे बैठते
अब वो सख्श हमारा थोड़ी ना था ।
