नासमझ इंसान
नासमझ इंसान
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समझ -समझ के समझ को समझा
समझ न आया कुछ भी मगर
खोज खोज के दुनिया को
ख़ुद को खोज न पाया पर
ले के सीने में गुरुर
समय से आगे चलना सीखा
सच्चाई से काम न बना तो
झूठ के पग में कदम को खींचा
मुझ जैसा बनने कि होड़ में
इंसान भी न बन पाया वो
कितनी मदद की पर फिर भी
मुझको समझ न पाया वो
जितने आविष्कार किऐ
किऐ उसने हित में अपने
भूल गया वो उफ़ गुरूर में
पृथ्वी पर जीव हैं कितने
गलती करके दोष देना
उसकी फ़ितरत बनी रही
कैसे कहूँ उसको मैं कि,
गलती हमेशा उसने ही की
मुझ जैसा बनने कि होड़ में
इंसान भी न बन पाया वो
कितनी मदद की पर फिर भी
मुझको समझ न पाया वो
