मुझ में मुझ सा
मुझ में मुझ सा
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जो मुझ से है, मुझ में है, मुकम्मल है वो
दर्पण में, अक्स में, मेरा सा ही दिखता है वो
सपनों की तस्वीर सजाई थी जो
हर कोने में उसके बसता है बस वो
हुआ क्या अब यूँ कि ख़ुशी में हासिल नहीं है वो
चाह उसे जिस मंज़िल की थी बिखर गया है राहों में उसी की अब वो
ग़मों में अकेला सा रहता है जो,
मेरा ही तो अंश है वो
मुस्कान होठों की लूटा, किस बेसब्री में बैठा है वो
अरमा है कि दूरी लमहों की तय कर
कभी तो मिल मुझ में फिर जाएगा बस वो
मुझ में मुझ से शामिल हो मुकम्मल हो ही जाएगा बस वो।