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में और मेरी साइकल !कल आज और कल !

में और मेरी साइकल !कल आज और कल !

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में और मेरी साइकल !

कल आज और कल !

बहुत ज्यादा नही देना पड़ता है उसे चलानेमे बल !

केवल दो चार पेंडल !

बस यु रफ्तार प्क्द्लेती है मेरी साइकल !

एक दिन बड़ी जिद्दकीथी मेने जब चाहिएथी मुझे साइकल !

पापा बोले “बालक अभी बजेट नही है ! तू थोडा जा संभल !”

“में जरुर ला के दूंगा तुझे साइकल !”

फिर वह दिन ढला, रात ढली, फिर हप्ते और महीने गये निकल !

मगर नही मिली मुझे मेरी साइकल !

मनही मन पापाको लगा कोसने की शायद पापा मेरी साइकल लानेमें हो गये है विफल!!

जबभी पापाके सामने जाऊ तब एक बार जरुर बोलता “पापा मेरी साइकल ?!”

हाथके इशारोमें पापा कहते थोडा ...तू थोडा और जा संभल !

में जरुर ले आऊंगा तेरे लिए साइकल !

फिर तो धीरे धीरे में भूलने लगाकी मुझे चाहिए साइकल !

पापा सामने आये तो भी वो बात नही दोहराता की मुझे चाहिए साइकल !

और एक शाम पापा थोडा जल्दी आए और बोले चल चल लेने चलते है साइकल !

मेरी ख़ुशीका कोई ठिकाना न रहा ! बस गिनने लगा वो पल !

की कब आये ! और कब चलाऊ में मेरी साइकल !

और ले आये हम साइकल !

मगर पापा मुझे माफ़ करना !

मुझे समज आ गया की..क्यू नही लेके दी मुझे उस वक्त साइकल !

समज गयाकी वक्त आने परही पेड़भी देता है फल !

तब में थोडा छोटाथा !

सही तरह नही चलानी आतीथी मुझे साइकल !

जब में थोडा बड़ा हुआ !

रास्तोको जानने लगा !

गली महुल्ले पहेचानने लगा !

तब जाके पापाने लाके दी मुझे साइकल !

में और मेरी साइकल !

यही है उसका कल आज और कल!

© नरेन के सोनार “पंखी”

 


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