मैं
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मैं जो यूंही चल रहा
अंदर ही अंदर जल रहा
कुछ पाने की तम्मना इस
कदर बेकरार करती है
कहीं जो है उससे तो न फिसल रहा।
माना "मैं" हूं एक अकेला
क्या भरोसा
की "हम" होने से लग जाए मेला।
"मैं" जो भावना है द्वेष की
"हम" जो कल्पना निवेश की।
मैं चल पड़ा उन गुमनाम राहों पर
बिन मोड़ के चौराहों पर
तलब बस उसको पाने की
जो बना समंदर आँहों पर