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Zeba Khan

Others

1.5  

Zeba Khan

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मै बेटी हूं

मै बेटी हूं

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आपकी नज़रों ने मुझको गिरा दिया

अफसोस कि गैरों ने फिर भी उठा दिया,

मैं ढ़ूंढ़ती रही अपनी मंज़िल

मगर ना मिला मुझे कोई हमसफर,

आपने भी मुझे था समझा नहीं

मुझको बेटी होने का सिला ये दिया,

टूटे सपनों को पिरोने की खातिर चली

अपने ही शहर में मुसाफिर बनी,

शहर की हर इक नज़र घूरती थी मुझे

मैं बेटी हूं बस यही खता थी मेरी,

लड़खड़ाई कुछ ऐसे कि चल न सकी

गिर कर दोबारा मैं उठ ना सकी,

कुछ कर दिखाने की हसरत थी मुझमे

ज़माने का दस्तूर बदलने की चाहत थी मुझमें,

हर इक पल कुछ ऐसे गुज़रने लगा

मुझको आहट हुई ये जमाना बदलने लगा,

जिन अपनों के सहारे की ज़रूरत थी मुझको

उन्होंने ही मुझसे ये शिकवा किया,

मैं बेटी हूं मुझे कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं

ऐसा कहकर मुझे घर में ही कैद कर दिया.


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