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कविता

कविता

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उन बंद दरवाज़ों के पीछे

ना जाने कितनी दबी हुई आवाज़े हैं

उन छिपाये हुए आंसुओं के पीछे

ना जाने कितनी दर्द भरी कहानियाँ हैं

ना जाने कितनी रौशनी को ढूंढते हुए

अंधेरे मे ही चल रही है

सिर्फ हिम्मत जुटाने की कमी है

खुद को अपनी सहारा बनाकर

सारी बेड़ियों को तोड़कर

बाहर निकल कर आने कि ज़रूरत है|


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