कर्मवीर
कर्मवीर
उम्र भर थके नहीं,
चाह बस रोटी की थी।
चलते रहे रुके नही,
आस बस छोटी सी थी।
बस किसी की छत बनाकर,
नींद भर हम सो लेंगे।
और उसी छत के सहारे
स्वप्न हम संजो लेंगे।
छोड़ कर अपना घरौंदा
तोड़ कर सभी बंधन।
आस थी कभी लौटे तो,
खूब ले चलेंगे संग।
मालिक को मालिकों के,
आगे हमीं भुला बैठे।
कागज़ी महलों के भी,
स्वप्न हम सजा बैठे।
एक आँधी जो चली तो,
स्वप्न भी संग उड़ गए।
अर्श से ऐसे गिरे कि,
फर्श से फिर जुड़ गए।
नींद तब टूटी हमारी,
मुँह से जब रोटी छिनी।
टूटते बंधन पुकारें,
जान पर जब आ बनी।
हौसलों के कदम चलकर,
फासले तय कर लिए।
जख्म वे ही दे गए,
जो कभी मरहम लगे।
नौनिहालों को चलाया,
धूप में भी कर निढाल।
तब कलेजा मुँह को आया,
देख कर उनका ये हाल।
ये क्षितिज सी दूरियाँ भी,
तय कभी कर पाऊँगा ?
भेंट होगी या कि पहले,
मैं कहीं मर जाऊँगा ?
साँस की डोरी रही तो,
टूटे रिश्ते पाट लूँ।
रूखी सूखी जो मिलेगी
उसमे जीवन काट लूँ।
अब कभी न रुख करूँगा,
स्वार्थ के शहरों की ओर।
सड़क कोई अब मिला दे
बस मेरे गाँवों की ओर।
