कोई बुलाता नहीं अब दुलार से
कोई बुलाता नहीं अब दुलार से
कोई बुलाता नहीं अब दुलार से,
बचपन बीती जहाँ कहानियों की छाँव में,
भरी दोपहर जहाँ एक सिक्का हाथ में लिए,
इंतेज़ार होता था बर्फ़ के गोले खाने का |
नानी की आँचल में लगता था
आसमान के तारों का मेला,
नाना जी के इंतेज़ार में था हर शाम ढाला|
मामाजी की साईकिल चुपके से चुरा कर,
सारी इमली छत कर जाते थे मौसी से छुपकर|
पकड़े जाने पर मामी के पीछे छुपना,
और इन सबके बीच दोस्तों को भी भूल जाना|
हँसी के ठहाके, गाँव के इस
छोर से उस छोर तक गूँजा करती थी,
याद आता है वो हर पल...
जब,
उस पागल को देखकर भागा करते थे,
छोटू की ओर जब वो बढ़े,तो जी हमारा घबराता था|
वो अमरूद की टहनियों पे लटके रहना,
उस कच्ची कैरियों के सात टुकड़े करना,
उन टुकड़ो में से अपने लिए सबसे बड़ा टुकड़ा चुनना|
आज भी वो खप्परों से ढका मकान खड़ा है,
आज भी वो गली किलकारियों को दोहराती है,
आज भी उस मकान की बूढ़ी दीवारें सहे जाती हैं,
पर अब कोई रहा नहीं जो हमें पुकार ले,
कान पकड़ कर हमारी चोरी पकड़ सके,
वीराना पड़ा है वो यादों का आशियाना,
बस यादों में रह गईं है वो प्यारी सी छबियाँ|
क्योंकि चाह के भी अब जाने को मन नहीं करता,
कोई बुलाता नहीं अब उस दुलार से |