काफ़ी हफ़्तों बाद...
काफ़ी हफ़्तों बाद...
काफ़ी हफ़्तों बाद...
आज इस सूरज को देखा है।
आग सी चमक रही थी रोशनी उसकी, हल्के से मुस्कुराती हुई।
डूबने के रस्ते पे बढ़ रहता धीरे से, आंखो में फ़िर से उगने की उम्मीद थी भरी हुई।
चूम रहा था एक एक पत्ते को, "कल फ़िर आऊंगा" कानों में उनके डालती हुई।
"फ़िर से जाग उठेंगे हम, तू हारना मत, झुकना नहीं" संदेशा सबको देती हुई।
"बीमारी है एक परीक्षा समझ, उत्तीर्ण सबको होना है,
घर, परिवार और दोस्तों से, फ़िर एक बार तुझको मिलना है।
घर पे है तू, घर में ही रहना, बस कुछ ही दिनों की तो बात है।,
समय लगेगा, काल नहीं,अब तो काल-काल को वी तुझे जितना है।
सक्ष्यम है तू शुक्र मना, बेजुबानों की मदद तुझे करनी है,
उठना है, लड़ना है अब इस विपत्ति के ख़िलाफ़, बस हार के पीछे नहीं हटना है।
प्रतिशोध कभी कुदरत नहीं लेगी, क्योंकि "मां" उसको तू बुलाता है,
थक गई है थोड़ी सी, बस कुछ समय का एकांत वह चाहती है।
इंसान रूपी उस भगवान को नमन कर, जो दिन रात हमारी मदद कर रहें है,
सिर्फ कर्तव्य नहीं, अब तो वह इंसानियत की परिभाषा समझा रहें है।
बेड़ियों को अपना शस्त्र बना, संगरोध को अस्त्र अब बनाना है,
पास नहीं मगर हाँ, साथ साथ हमें अब रहना है।
देश नहीं पूरे विश्व का, भार अभी कंधे पे लेना है,
यह युद्ध सिर्फ तेरा नहीं, यह युद्ध हम सबका है।"
कल फिर से एक नई उम्मीद के साथ आने के लिए,
शान से डूबता हुआ, धरती मां का एक पुत्र, सूरज!
