ज्ञात अज्ञात
ज्ञात अज्ञात
इंसानों की जो जात है हर सच से ही अज्ञात है,
आँखों पे धन की पट्टियां, हाथों में गुरूर का हाथ है,
मैं ही सही मैं ही भला, मैं ही हूँ सब मैं ही बड़ा,
हर बात में बस मैं ही मैं, हर कार्य बस मेरा ही हो,
हर चीज पे है हक मेरा, हर कला पे है हक मेरा,
जो पास मेरे पैसा है तो, हर कलाकार ही है बिका,
हर कम धनी को गुलाम समझ हो नीच दृष्टि डालते,
खुद का भला बस हो जहां, हर पाप को कर डालते,
हर वो बालिका अवसर दिखे, जो जन्मी ना तेरे खून से,
जो रोकने को उठे कोई, तो उस हाथ को ही रौंद दे,
देश ही ये गलत है, समाज में है ये कमी,
खुद को जताते बेहद बड़ा, देश की कर बेज्जती,
चल दिये तुम छोड़ कर जो देश को जलते हुए,
तुम ही कहो,
वो कब तक जिए जो वृक्ष जड़ों को त्याग दे,
ये सोच भला क्या सोच है तुम सोच से बीमार हो,
कहते हो खुद को मानव भला,
तुम इंसान ही बेकार हो, ना ज्ञान है ना धर्म है,
संस्कारों को तुम जानो नहीं, तुम मात्र एक पुतला हो,
तुम खुद की जड़ों को ही पहचानो नहीं,
बंजर सी तुम वो भूमि हो जिस पर ना जीवन फल फूलता,
बस कांटें ही कांटें हो उगे, शमशान है बस झूलता,
मातृभाषा त्याग कर खुद को बताते जो साक्षर,
निर्भाव निर्उदेश्य हो, और हो समाप्ति के पथ पर,
बिन जाने समझे ही तो तुम, करते हनन हर मूल्य का,
संस्कृति को जाने बिना करते हो बस अवहेलना,
जन्मों पुरानी सभ्यता के हर तथ्या को ही नकार कर,
बन बैठे हो पाश्चात्य तुम, हर बात को ही त्याग कर,
बढ़ना भला है किन्तु अपने आप को भूलो नहीं,
जिन बातों से तुम हो बने उनको कभी भूलो नहीं,
संस्कृति और संस्कारों से तुम हर जगह जाने जाते हो,
छोड़ कर हर रंग अपना, रंग तुम बदलो नहीं,
नकार कर खुद की जड़ों को ना बन सक कोई कभी,
चाहें बसो परदेश क्यूँ ना, पर दिल होना चाहिए भारती।
