जल्दी सूरज निकलेगा
जल्दी सूरज निकलेगा
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मन के भीतर एक धधकता ज्वालामुखी विचारों का
बीज भँवर में कश्ती उलझी पता नहीं पतवारों का
रोक रहे हैं आशाओं को अवरोधों के आतंकी
मार रहे फुँफकारें देखो अवसादों के विषदंती
जीवनपथ के गलियारों में असमंजस का डेरा है
नज़र नहीं आने देता कुछ चारों तरफ़ अँधेरा है
पर कितना भी हो सघन अँधेरा, एक किरण से पिघलेगा
जल्दी सूरज निकलेगा.....
रात भयानक कितनी भी हो प्रातः का हो जाना तय
तम को चीर के किरणों का इस अम्बर पे छा जाना तय
ग्रीष्म ऋतु में कितना भी तपना पड़ जाए धरती को
पर तपने के बाद धरा पर बरखा-शीत का आना तय
क्षण बदले हैं, दिन बदले हैं, युग भी सदा बदलते हैं
कष्टों को यौवन जीवन में इक न इक दिन ढलते हैं
कुछ भी स्थिर नहीं यहाँ तो, दुःख का समय भी बदलेगा
जल्दी सूरज निकलेगा....
