जिओ उनके लिए
जिओ उनके लिए
मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी
कि अब मेरा कौन है ?
मैं किसके लिए अपना आँचल पसारुंगा ?
पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना।
तब मेरा ह्रदय मर्मान्तक हो गया ,
फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा ,
हाँ अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।
मैं ज़माने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।
भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व को जागृत करुं।
मैं शैने-शैने सदमानुष के आँखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है
उनपर ग़मों व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और
चक्षुजल ही जलधि बन पड़ी हैं
फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित हो गया ।
मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।
परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया
और मैंने चक्षुजल से बने जलधि को रोक दिया ।
क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था ।
जब तक मेरी सांसें चली..
तब तक मैं उनके लिए आँचल पसारा किन्तु अब मेरी साँसे लड़खड़ाने लगी हैं ,
जो मैंने उठाए थे ग़मों व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।
अतः हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास , आस लेकर आँचल पसारता हूँ ...
और कहता हूँ तुम उन अंधों के आँख बन जाओ ,
तुम उन लंगड़ों के पैर बन जाओ और जिओ 'उनके लिए' .
क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ?
या तुम भी उन जन्मान्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?
राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –'
जीना तो है उसी का ,जिसने यह राज़ जाना है।
है काम आदमी का , औरों के काम आना है ।।