जिंदगी
जिंदगी
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' जिंदगी ' अच्छी चल रही थी
ज़रा सी राह क्या बदली
हम परेशान हो गए......
लगा.. जैसा कुछ बचा ही नहीं
'हाँ ' भी नहीं, और 'ना' भी नहीं
भीड़ में हम तन्हा हो गए
ज़रा सी राह क्या बदली
हम परेशान हो गए........
'दिल 'दिमाग़ पर हावी
हो गया......
आजाद 'मन ' रहने वाला
हम पर तानाशाह हो गया
ठहरो.....
'दिल ' को थोड़ा समझया
जीवन का एक 'पन्ना ' ख़त्म हुआ
किताब नहीं....
अभी आगे के पन्नों को
शायद... कभी पढ़ा ही नहीं....
दिमाग़ समझ गया
दिल भी मान गया...
जिंदगी जो रफ़्तार में
भाग रही थी, अब वो धीमी हो गयी
या... यूँ कहूँ....
शायद....
' राह ' बदल ली है.....!
