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alok kumar singraul

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alok kumar singraul

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जाने कितनी सीता होंगी

जाने कितनी सीता होंगी

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भय से व्याकुल होकर मन

निज आँचल में छुप छुप रोया है

पीर प्रेम की तपन अगन की

सह कर भी सब कुछ खोया है

खोया है मन का वह भ्रम

भ्रम से उपजा वह प्यार कहीं

नयनों के मोती खोये हैं

खोये दिल के अधिकार कहीं

अब तक छला गया हमको

कितनी सदियों और छलेंगे

जाने कितनी सीता होंगी

जाने कितने स्वप्न जलेंगे?


स्वप्न है क्या? इक ख़्वाब जो

केवल आँखों में ही पल पाया

निज आशाओं का मर्दन कर

कभी न रुप में ढल पाया

न ढल पाई चाहत कोई

न छवि की सुंदर राग ढली

न पुरुषों का अभिमान ढला

न व्याकुल मन की आग ढली


दर पे जब साधु आये तो

कैसे न कोई भिक्षा दे

हर युग में सीता ही क्यों ?

राम भी अग्नि परीक्षा दे

जब बांध दी पैरों में बेड़ी

तो और कितनी दूर चलेंगे

जाने कितनी सीता होंगी

जाने कितने स्वप्न जलेंगे?


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