गर्दिश में तारे
गर्दिश में तारे
गर्दिश में तारे
आज माना गर्दिश में कुछ तारे हैं, पर वो तारे भी तो हमारे हैं।
न जाने कितनी बार ये साथी रहे उन तन्हा कटती रातों के,
कई बार इन्होंने ही समाँ बनाया हमारी उन हसीन मुलाक़ातों के।
मौसम ने रंग क्या बदला काले पड़ गऐ ये नज़ारे भी,
गर्दिश में हुऐ तो क्या असहनशील हो गऐ ये तारे भी?
आज माना सुखी है धरती, जो कभी हमारा पेट थी भरती।
लोट-लोट कर जिसकी गोद में हमारा बचपन था बिता,
एक टुकड़ा पाने को जिसका आदमी अपनी सारी ज़िंदगी जीता,
नागफनी अब उग आऐ हैं, अब गोमाता भी ना चरती है,
रसहीन हुई तो क्या ये अब असहनशील हो गई ये धरती है?
आज माना रंग कुछ फीके हैं, जो हमने संस्कारों से सीखे हैं।
ये रंग थे संतोष के जो किसी अभाव में में भी चमकते थे,
ये रंग थे उन त्योहारों के जो आपसी ग़म में भी दमकते थे।
मिलावट पड़ गई इनमें, अब तो हर तरफ अभावों की जंग है,
संस्कार सही नहीं रहे अब तो क्या असहनशील हमारे ये रंग हैं?
तोड़ो नहीं जोड़ों के देश में आज हर कुछ धीरे धीरे टूट रहा है।
भँवर के आलम में आज आदमी का हाथ इंसानियत से छूट रहा है।
जिस देश में रहते हैं उस देश की हवा से दुश्मनी हो गई है,
चंद जयचंदों के कारण देश के हाथ ख़ुशियों से सूनी हो गई है।
असहनशीलता देश में नहीं हमारे सोच में है। गलती डर के जीने में नहीं उठ के जीने से संकोच में है।