ग़ज़ल
ग़ज़ल
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मरा करते हैं बच्चे भूख से घर में न दाना है।
उन्हें तो पेट की आतिश को अश्कों से बुझाना है
नहीं इमदाद को आता है कोई इन ग़रीबों की,
भरें सब पेट अपना मतलबी सारा ज़माना है
फ़लक छत है जमीं बिस्तर ग़रीबों का ये सरमाया,
रिदा-ए सब्र ओढे़ं हैं नहीं कोई ठिकाना है
वतन में प्यार की खुश्बू से महके ये फि़ज़ा सारी,
खिलें गुल अम्न के जिसमें शज़र ऐसा लगाना है।
चढ़े अब दार पे कोई न हक़ का बोलने वाला,
जहां से ज़ुल्मो-बातिल की ह़ुकूमत को मिटाना है
बढ़ाए जा क़दम मंजिल की जानिब प्रीत से "प्रीतम"
बिला शक आस्मां जैसी बुलंदी तुझको पाना है!
