फ़र्ज़ करो अगर
फ़र्ज़ करो अगर
फर्ज करो कि तुम्हारी हर फरियाद कुबूल हो जाती अगर
फर्ज करो की तुम्हारी हर ख्वाहिश चलती तुम्हारी मर्जी की डगर
क्या फिर भी तुम्हारी शिकायतों का दौर यूँ ही रहता
क्या तब भी तुम रोज अपने होने पर सवाल करते?
अच्छा चलो..
फर्ज करो की दौलतों का ढेर पे बैठे होते तुम
फर्ज करो की दुनिया के सिरमौर होते तुम,
क्या फिर भी किसी दूसरी वसीयत को कोस रहे होते?
क्या फिर भी गुलामी की फजीहत यूँ कर रहे होते?
कैसे गुलाबी हो गये तुम देखो जरा ये सारी बातें फर्ज करके..
लगा तुम्हें,हुकूमत हो मेरी चाहे हो जैसे।
ठहरो मगर और सोचो जरा ये सब कैसे होता..
आयाम और भी है
तुम न होते यहां यूँ अगर ऐसे
तो शायद इन हालात में कोई और होता।
किसी की ख्वाहिशों कि कुर्बानी तो तय थी
तुम न होते तो कोई और होता।
शिकायती लहजे में रूबरू होता वो भी दुनिया से
अपनी हर आफत को देखकर तुम्हारी ही तरह खुद को बदनसीब समझता,
लम्हे लम्हे कोसता अपनी हर फकीरी को
लोगों की मेहरबानी का मोहताज रहता।
कुछ दिख रहा है शायद तुम्हें
मैं किस ओर ले जा रहा हूँ..
आइना नहीं फिर भी आइने सी तस्वीर दिखला रहा हूँ।
दिख रहा है तुम्हें....
नहीं हो तुम ख्वाहिशों भरे कोई पुतले
ना ही वो मोम जो गुलामियों मे जले।
नही हैं सिर्फ खुशी किसी एक के हिस्से
ना ही हैं दुनिया में सिर्फ गम के किस्से।
है अगर तो सिर्फ फरियाद का बाजार
किसी के हिस्से की नफरत,
किसी के हिस्से का प्यार।