दावानल रूपी ईर्ष्या
दावानल रूपी ईर्ष्या
वन रूपी मस्तिष्क के कुविचारों में जब घर्षण हो जाए
तब दावानल रूपी ईर्ष्या का प्रचंड उत्कर्षण हो जाए
चेतनतत्तव उसका ऋणात्मकता दोष के वशीभूत हो जाए
अंतःकरण दग्ध हो जाए और शनैः शनैः वो भस्मीभूत हो जाए।
इसकी ऊष्मा की शक्ति में वो जीवन भर झुलसता जाए
जीवन की आपा धापी में निरंतर भाव से उलझता जाए
बना के इसको नित्य-कर्म वो वेदना के सिंधु में डुबकी लगाए
दूसरों के आमोद में भी वो संताप को ढूँढ ढोल त्रंबकी बजाए।
आह्लाद के ढेरों रंगो को आत्मसात् करने में उससे भूल हो जाए
सिर्फ़ शुद्ध काला रंग तमस् का उसके लिए अंत्यमूल हो जाए
अभिनंदन ना हो पाए मुख से वो आडंबरपूर्ण मूक बन जाए
दोष अवगुण दिखे अगर तो वो अतिभाषी अचूक बन जाए।
सकारात्मकता उसके लिए मिथ्या ग्रन्थ का एक शब्द कहलाए
नकारात्मकता का तीव्र संचार उसको प्रायः आत्यंतिक भाए
रिश्ते- नाते बचे ना उसके विवेक भी उसका मुँह मोड़ता जाए
अवसरवादी मित्र बनाए और निश्छल संबंधों को तोड़ता जाए।
उपलब्धियाँ किसी और की देख कर वो शंकित हो जाए
प्रतिद्वंद्विता उससे करते करते खुद वो अंगारकित हो जाए
पीते पीते घूँट इस हलाहल का वो स्वयं विषैला बन जाए
प्रतिदिन वो अत्यंत तपे एवं जो हो सदृश उनको भी तपाए।
कहे सौरभ कवि इस दावानल रूपी ईर्ष्या से कोई ना जल पाए
प्रेम और विश्वास हल इसका अगर मेरा काव्य स्मरण में आए
वन रूपी मस्तिष्क के कुविचारों में जब घर्षण हो जाए
तब दावानल रूपी ईर्ष्या का प्रचंड उत्कर्षण हो जाए।
