बोझ
बोझ
बोझ उठा रहा है हर कोई,
चलते फिरते यहां वहां,
एक बात लाज़मी नज़र आई।
बोझ उठा रहा है हर कोई।
हर एक का बोझ अलग,
हर एक की वजह न्यारी,
किसी की मजबूरी,
तो कोई निभाए दुनियादारी।
किसी का बोझ ज़हनी,
तो कोई ले चला जिस्मानी,
किसी ने अभी अभी शुरुआत की,
तो किसी की ढली जवानी।
किसी का बोझ हल्का,
तो किसी का काफी भारी,
कोई उठाए चाव से,
तो कोई पाले रिश्तेदारी।
माझी का बोझ, भविष्य का बोझ,
तो कहीं दबा सहमा सा वर्तमान,
कोई ग़म से बोझिल ,
तो कोई खुशी के तले दबता,
अमीर और ग़रीब, जाहिल हो
या सुलझा हुआ, किसी का बोझ ना
एक-समान।
कभी थक कर रुकता,
इधर उधर देखता, सांसें बोझिल
पल भर को सोचता, क्या है कोई कहीं?
मेरा बोझ बांटने वाला,
पूरा नहीं तो थोड़ा ही सही।
फिर हँस देता अपनी ही सोच पर,
ये देखकर की ख़ाली नहीं है
किसी के भी कंधे,
बोझ उठा कर चल रहे हैं सभी बंदे।
बोझ उठा कर चल रहे हैं सभी बंदे।