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बहुत आसां है ग़ुलज़ार होना

बहुत आसां है ग़ुलज़ार होना

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उन स्याह रातों को
जिनके रिसालों के
सफ़हों पर
ठूँठ टँगें पड़े हैं
ज़र्द लम्हों के...

जो बयाँ करते हों
गुनाहे-बेगुनाही
अपनी ....

जिनमें लहके हुए हैं
कुछ बोसे ऐसे भी
कि तिश्नालब
न रहा कोई
कुछ ऐसे भी
कि आब-ए-ज़मज़म
उतर आया फ़िज़ाओं में....

जैसे सर्द रातों में
ज़िस्म गर्म रखते हैं
ऐसी रातों को
बस जरा दबोच लो
और भींच कर मुट्ठी
दबा लो बगलों में ...

गुलज़ार होना कहाँ मुश्क़िल है
बहुत आसां है गुलज़ार होना

 


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