बचपन
बचपन
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इस दहलीज़ पे आकर खिड़कियां छोड़ आए हैं।
जवानी आई तो आंगन की चिड़ियां छोड़ आए हैं।
गली के मोड़ पर जो दुनियां हमारी रहती थीं,
किसी सराब की उम्मीद में,वो दरिया छोड़ आए हैं।
उसकी आंखों के उजालों से,ज़िंदगी थी,हुई रोशन,
अंधेरों में भटक कर,जीने का ज़रिया छोड़ आए हैं।
जहां खेलें, गिरे, उठें, वो राहें आज भी तकती,
सफ़र-ए-ज़ीस्त में मशगूल,वो गलियां छोड़ आए हैं।
दौलतें,इस जहां की, हमको मयस्सर हो गई तो क्या,
वो चौबारे में अपने,बारिश की कश्तियां छोड़ आए हैं।
बहाएं थे, जो आंसू, मेरे मां -बाप ने उस शब,
मेरे बिस्तर के तकिए पर वो लड़ियां छोड़ आए हैं।
गुज़रती उम्र का पैमाना,अब अक्सर भूल जाते हैं,
हम अपने बचपन में, कई सदियां छोड़ आए हैं।