बच्ची थी मैं
बच्ची थी मैं
उम्र की थोड़ी कच्ची थी मैं
जैसी भी थी अच्छी थी मैं
आया अधेड़ हैवान था एक
पहचान न पायी बच्ची थी मैं
ख़ुशी थी बचपन की गलियों की
खेल- कूद की, सहेलियों की
गुड़ियों की शादी करते हम
कहाँ समझ थी बहेलियों की
होठों से तब ख़ून बहा था
पहली दफा जब वो चूमा था
जीवन भर ना भूल सकूँगी, जो
एक छोटी बच्ची ने सहा था..
छुवन उँगलियों की उसकी
आज भी होती है महसूस
घिन आती है बदन से अपने
बिसरी न जाती घड़ी मनहूस
समझ ना पायी थी तुम मुझको
बता न पायी माँ मैं तुझको
महफूज़ थी सबसे जहाँ, वहीं पर
नोचा गया मेरे बचपन को..
बाबा तुमसे क्या मैं कहती
समझी नहीं मैं हुआ क्या था
कोमल से मेरे शरीर को
उस जंगली ने क्यों रौंदा था
सहम सी जाती, डर जाती थी
कह न पाती थी कुछ भी
जब- जब मेरे पास वो आता
ना- ना करती रहती थी..
यौवन की अँगड़ाई लेकर
वक़्त नया जब आया है
किसी और का छूना अब तक
मुझे नहीं भा पाया है
है पापी, अत्याचारी वो
शर्मसार फिर मैं क्यों हूँ,
लड़ती हूँ खुद से ही खुद में
क्यों न मैं स्वच्छन्द जियूँ ?
चाहते सब फिर लौट के आये
बचपन कितना प्यारा था,
मेरा बचपन कभी न लौटे
पशुता से वो हारा था..
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