औरतों को समर्पित कविताएं साथ में कवि सुरेन्द्र रघुवंशी की समीक्षा
औरतों को समर्पित कविताएं साथ में कवि सुरेन्द्र रघुवंशी की समीक्षा
समर्पण---------
एक लहर छोटी सी
जब-तब समुद से उठकर
चली आती किनारे टहलने
अनन्य आकांक्षाएं लेकर
बाहरी दुनिया के डैने
भेदती निगाहें
सूरज का ताप
और अकेलेपन का ख़ौफ़
अगले ही क्षण
घबराकर लौट आती
सागर के संरक्षण में
सागर की अट्टहास से सहमी
सहती रहती अनुगूंजें
सागर बताता, समझाता
और समेट लेता बाँहों में
आहत इक्छाओं का दर्द छिपाती
छटपटाती दिन- रात
कचोटती आत्म
निरुत्तर वो न बता पाती
वह क्यों ज़िंदा है
वो चाहती थी
स्वयं की अभिव्यक्ति
चाहती थी वज़ूद
और बहना चाहती थी
अकेले कुछ दूर स्वछंद
कर देती कसमसाकर समर्पण
सागर जान भी न पाता
क्या है लहर का अर्पण
कैसे बनता जाता है वो खारा
और खारा और बहुत खारा !
वह समर्पित लहर कुछ दिन बाद ही
सूर्य के उस ताप का लेकर सहारा
बादलों के साथ निकली सैर को
बाहरी दुनियाँ के डैने भेदते थे अब नहीं
भूमिपुत्रों ने किया स्वागत निरन्तर
और वह अविराम धरती सींचकर
सरिता बन स्वछन्द बह कर
फिर चली सागर से मिलने
बाँहों में अब फिर समेटा गया उसको
उसके सुस्थापित वजूद सहित
और वह अभिव्यक्त करती स्वयं को
सर्जना की शक्ति से परिपूर्ण होकर
सृष्टि के आधार की सहस्वामिनी सी
और सागर जान जाता है कि क्यों
बना है वह बहुत खारा बहुत खारा
*सुनीता मैत्रेयी*-
: *पहला प्रेम*
कभी नहीं भूलती औरत
अपना पहला प्रेम
समझौतों की चादर से
प्रेम का मुंह ढाँपकर
सिसकी भी नहीं लेती
दमन कर लेती है इच्छाएं
घुटती रहती है भीतर
पीड़ा छिपाकर पी लेती है आँसू
अनिच्छा जतलाए बिन
काट लेती है पहाड़ सा जीवन
पर प्रेम को ओंठ तक आने नहीं देती
जानती है ख़ूब, वरना धिक्कारी जाएगी
लांछित होएगी या परित्यक्त भी
प्रेम को मारकर जीने में
पारंगत बनाया गया है उसे, बचपन से
किंतु वो औरत है
वो जानती है
शव से शरीर के भीतर
प्रेम को चिता तक जिंदा रखना
बिन कहे चुपचाप!!!
*सुनीता मैत्रेयी*
*पूरे पच्चीस वर्ष बाद*
जब यौवन में क़दम रखा था
किसी सहेली को देखा था तुमने
प्रेम पत्र लिखते
तुमने भी चाहा था, वैसा ही करना
तभी फूटे होंगे तुम्हारे भीतर
पहली बार प्रेम के अंकुर
तुम्हारी देह के बदलाव भी
तुम्हें प्रेरित करते होंगे
सोच से हुए होंगे हार्मोनल चेंज़
शायद तुम प्रेम को ठीक- ठीक
समझी भी नहीं थीं
मेरी परिणीता बन आईं
प्रेम कब ज़िम्मेदारी में बदला
तुम्हें ही पता नहीं
तुम्हारी संवेदना- वेदना
हर्ष-उल्लास, इच्छा- प्रतीक्षा
हर कलेवर परिवार के फ्रेम में
तुम्हारी ज़रूरत बन गया
मैंने समझा तुम भूल गयीं प्रेम
ज़िम्मेदारी के बोझ तले
पूरे पच्चीस वर्ष बाद
तुम फिर नितांत अकेली हो
पंछी उड़ गये,नीड़ शेष है
नहीं बन पाया तुम्हारा प्रेमी
मैंने की तुम्हारी सुरक्षा
तुमने मेरी ख़िदमत
अब तलक़ ढ़ो रहा हूँ घर का बोझ
नहीं दे पाया तुम्हें समय
अब मुझे फिर तुम्हारी आँखों में
दिख रहे हैं रंगीन स्वप्न
तुम वैसी ही लगीं अचानक
जैसी पहली बार लगीं थीं
तुम संवरती हो, गुनगुनाती हो
लगता है भीतर फूट रहे हैं फिर
प्रेम के अंकुर
मैं जान गया हूँ
समय की मिट्टी में प्रेम
ढंक सकता है
पर मर नहीं सकता
*सुनीता मैत्रेयी
*हाउस वाइफ़*
सुबह- सुबह हाउस वाइफ़ को
घेर लेतीं हैं आवाजें
कमर कसकर साड़ी का पल्ला
कमर में खोंस लेती है
घर की धुरी पर होता है उसका
नर्तन आरम्भ !
खीजकर बालों को
ठूंसती है पिनों के बीच
ताकि झुकने पर गिरती लटें
समेटने में न हो समय व्यर्थ
यंत्रचालित औरत बन जाती है
रोज़ सुबह मशीन!
ज़रूरी कामों में कभी- कभी
भूल जाती है चाय पीना
कभी पीती जाती है रसोई में खड़े- खड़े
जल्दी- जल्दी बच्चों की वाटर बोटल भरते
उसे याद आ जाते हैं प्यासे गमले
पौधों को पानी देती हुई
उन्हें सहलाती है दुलराती है
बदले में फूल हँसते हैं उसके साथ
चटकता गला बताता है
उसको,वह प्यासी है
धूल से अटी- पटी
डस्टिंग करते समय
नज़र पड़ जाती है दर्पण पर
बार- बार रगड़ती है उसे
क्या धुंधला हो गया है??
अरे!! बेख़बर औरत
तू इतनी फैल गयी है
अब तू भद्दी हो गयी है
भीतर से आवाज़ आती है
बालों से झांकती असमय सफेदी
उसे डराती है!
तू क्यों इतनी लापरवाह हो गयी है
मुस्कुरा कर जवाब भी आता है
क्यों कि अब तू सिर्फ हाउस वाइफ़ हो गयी है!!
*सुनीता मैत्रेयी*
*इतनी सी बात*
मैंने बहुत पहले लिखी थीं
कुछ कविताएँ
नीले- नीले आकाश पर
सागर की गहराई पर
कुछ तितलियों पर
और नदी की वेदनाओं पर भी
वो छपतीं तो मानो मेरे पंख उग आते
वो मेरी अमूल्य पूंजी थीं
मैं अब भी लिखती हूँ
स्वरूप बदल गया
कभी धोबी का हिसाब
कभी किरयाने की लिस्ट
और बच्चों का होमवर्क
यदा- कदा अतीत खंगालती
जो संजो रखा था सपने सा
एक रंगीन फ़ाइल में
उन्हें पढ़ती, निहारती
हाथ फेरती रहती
छिप- छिप कर!
अचानक तुम्हारे आने पर
झट छिपा देती बिस्तर के नीचे
बनाने लगती मैं चाय
तुम्हें अच्छा लगता था
घर का करीने से सजाना
मेरा जूड़ा बनाना
उसमें फूल टांकना
और मिल जुलके
बच्चों के साथ खेलना
ताउम्र पूरी कीं तुम्हारी ख़्वाहिशें
परवाह की चाहतों की
मेरी अंतिम इच्छा लिख रही हूँ
तुम मेरे सिरहाने रख देना
मेरी सभी कविताएँ
एक बार पढ़कर
तुम मानोगे न मेरी
इतनी सी बात!!!
*सुनीता मैत्रेयी*
*अब मैं जीने लगी हूँ*
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क्यों चिल्ला रहे हो तुम
लगातार----
हाँ मैंने कर दिए
इन दीवारों में महीन सुराख़
एक बड़ा छत में भी!
भीतर ही भीतर मैं
घुटन से मर रही थी
मेरी आँखें धुँधली हो रही थीं
मेरे कानों ने सुनना
बंद कर दिया था
मेरी नसों में घुल रहीं थीं
सिर्फ़ तुम्हारी साँसों की
कार्बन डाई ऑक्साइड ...
मैं थोड़ा-थोड़ा
रोज़ मर रही थी!
अब शनैः शनैः
इन छेदों से
ऑक्सीजन भीतर आती है
अब मैं सुन सकती हूँ
बाहर की आवाज़ें!
रात में देख सकती हूँ
चाँद की अठखेलियाँ
सुबह का सूरज भी तो
अब बातें करता है!
अँधेरों से मुझे मुक्ति दी है
इन छोटे सुराखों ने
मैं अब जीने लगी हूँ
एक बार फिर से------
*सुनीता जैन।
सुनीता जैन की कविता ' समर्पण' सागर को समर्पित लहर का सागर से ही जुड़े रहकर अपनी स्वयं की यात्रा पर निकल पड़ने की छटपटाहट को दर्शाती है ।यहां लहर में स्त्री और सागर में पुरुष का प्रतीक है। दोनों एक -दूसरे का अभिन्न हिस्सा हैं और युग्म में ही पूर्ण होते हैं।जब उपेक्षा की उमस बढ़ जाती है तो सम्बन्ध जब गुलाम बनाने लगते हैं तब लहर भी वाष्पीकृत होकर बादल का हाथ थाम लेती है।आजादी सबसे बड़ी मानवीय कामना होती है और यह शोषण के प्रतिकार में उपजती है। सुनीता जैन अपनी इस कविता में यह बात प्रतीक की भाषा में कह पायीं हैं।'पहला प्रेम' कविता में सुनीता जैन ने एक स्त्री की उस पीड़ा को अभिव्यक्त किया है जो अपने पहले प्रेम को अपने ह्रदय में ही दमन करके जिन्दा रह पाती है और अपनी इच्छा के विरुद्ध स्वयं पर बलात थोपे गए रिश्ते को आजीवन निभाने का प्रहसन करती है,पर आखिरी सांस तक अपने पहले प्रेम को नहीं भूलती ।इस दर्द को एक स्त्री ही बयान कर सकती है। हम आधुनिकता के तमाम खोखले दावों के बावजूद आज भी प्रेम को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। इस पाखण्डी समाज में बहुत कुछ बदलने लायक है ।'पूरे पच्चीस साल बाद ' कविता शादी के पच्चीस साल बाद भी अपने पहले प्रेम को पाने की एक स्त्री की स्वाभाविक उत्कंठा है। अपने प्रेमी को छोड़कर अन्यत्र रिश्ते में बाँध देने में एक स्त्री काम करने और गृहस्थी चलाने यहां तक कि बच्चे पैदा करने की मशीन तो हो सकती है पर वह अपने मन माफ़िक प्रेम के संसार को न पाकर आजीवन उदास रहती हुई अपने ह्रदय और कल्पनाओं में प्रेम के अपने संसार को आजीवन जीवित रखती है। इस बात को एक पुरुष भी बखूबी जानता है कि रिश्ते के आधार पर स्त्री के शरीर को भोगा जा सकता है पर उसके प्रेम को नहीं पाया जा सकता।यह कविता 'पहला प्रेम' कविता का ही विस्तार है। इसे पृथक से लिखने की आवश्यकता नहीं थी। " हाउस वाइफ' कविता एक स्त्री के हाउस वाइफ बनकर काम की मशीन बन जाने की यथार्थ कथा है।स्त्री आजीवन अपने अथक श्रम से एक मकान को घर में बदलती है।बच्चे जनती है, उन्हें पालती है और जीवन भर घर के कामों में खटती हुई अपनी कोमल कमनीय इच्छाओं को मारकर सपाट जीवन जीने को विवश हो जाती है।एक स्त्री ही इस दर्द को समझते हुए हूबहू बयान कर सकती है, जैसा कि सुनीता जैन ने किया भी है।'इतनी सी बात" में स्त्री मन की पीड़ाओं की पोटली है जिसे खोलकर बांचने का उसका आग्रह हमारी संवेदनाओं को जगाने के लिए आग्रह है।'अब मैं जीने लगी हूँ' सुनीता जैन की ऐसी कविता है जो स्त्री को घर के कैदखाने में बंद रहने की गहन पीड़ा को उजागर करते हुए उसकी मुक्ति की कामना करती है। जब घर कैदखाना बन जाये तो उसकी दीवार और छत में इतने सुराख़ तो कर ही लेना चाहिए कि हवा, प्रकाश मिल सकें और आसमान के तारे भी दिखाई दे सकें। यह स्त्री का जायज विद्रोह है। सुनीता जैन की कविताएं स्त्री विमर्श की गहन रचनाएं हैं और स्त्री की मुक्ति की घोषणाओं के झूठे दावों की पोल खोलती हैं। आज भी स्त्री समय के इस पायदान पर खड़ी है , जानकर चिंता होती है। अपनी मुक्ति का सारा संघर्ष खुद स्त्री को ही करना होगा। ऐसे समय में सुनीता जैन की कविताओं में विद्रोह की चिंगारी हमें आशान्वित करती है। सुनीता जैन की ये कविताएँ उनकी प्रारम्भिक कविताएँ हैं उन्हें शिल्प और व्यंजना के स्तर पर अपेक्षाकृत घनीभूत होना होगा और उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही सुनीता उस कविता को भी प्राप्त कर लेंगी जिसकी कामना हम उनसे करते हैं। - सुरेन्द्र रघुवंशी
