अपेक्षा कयूं करुं
अपेक्षा कयूं करुं

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मैं क्यूँ अपेक्षा करूँ,
तुमसे ये सोचा मैंने, साथ निभाने कि दोस्त,
अपितु ये धरती भी नश्वर है,
नश्वर हैं चंद्रमा और तारे,
मैं क्यूँ अपेक्षा करूं, तुमसे मुझे समझने की,
जबकि तुम मुझसे भिन्न हो,
तुम्हें वक्त संवेदनाहीन बना रहा है,
और ये तुम्हें भी नहीं पता,
मैं क्यूँ अपेक्षा करूं तुमसे,
मेरे बुने हुए सपनों में रंग भरने की,
जबकि तुम किसी और के
बुने हुए सपनों रंग भरना चाहते हो,
किन्तु ये बावरा मन भी न जाने,
क्यूँ अपेक्षा रखें अंजाने,
बीते कल कि न कोई शिकायत तुमसे,
आने वाले कल से तुम्हारे न को तवक्को हमको,
जब तुम ही ठहर गए, तो हम क्यूँ बहे।