अभिलाषा
अभिलाषा


कभी मसला गया फिर सजाया गया ।
कभी वीरों के शव पर चढ़ाया गया ।
कभी देवों के चरणों की शोभा बना ।
कभी चौखट में मुझको लगाया गया ।
किसी ने न जानी है मेरी अभिलाषा ।
कभी शव पर चढ़ाया वरमाला बनाया ।
कभी पूजा की थाली की शोभा बनाया ।
कभी पैरों तले कुचला फिर दबाया ।
उपवन को महकाया दिलों को मिलाया ।
मेरा हर कर्म शुभ फल ही है लाया ।
नहीं स्वार्थ मुझमें कभी भी है आया ।
मेरा गुंचा - गुंचा उपयोगी कहलाया ।
कंटक में रहा दर्द सहता रहा ।
दर्द मेरा मिटाने कोई भी न आया ।
तोड़ डाली से मुझको, अंत मेरा किया ।
फिर भी मैंने जग-जन सुगंधित किया ।
मेरी अभिलाषा उपवन में रहूं ।
रोज़ खिल मैं उपवन सुगंधित करूं ।
छूट डाली से जब मैं धरा पर गिरूं ।
प्रसन्नचित गौरव का अनुभव करूं ।
उस क्षण तुम उठा लेना माली मुझे ।
और देना मुझे उस पथ पर तुम डाल ।
जहां वीरों के छूटे हों पद के निशान ।
मेरी अभिलाषा का… यही अंतिम पड़ाव ।