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डॉ. नीरू मोहन वागीश्वरी

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4.8  

डॉ. नीरू मोहन वागीश्वरी

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अभिलाषा

अभिलाषा

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कभी मसला गया फिर सजाया गया ।

कभी वीरों के शव पर चढ़ाया गया ।

कभी देवों के चरणों की शोभा बना ।

कभी चौखट में मुझको लगाया गया ।

किसी ने न जानी है मेरी अभिलाषा ।

कभी शव पर चढ़ाया वरमाला बनाया ।

कभी पूजा की थाली की शोभा बनाया ।

कभी पैरों तले कुचला फिर दबाया ।


उपवन को महकाया दिलों को मिलाया ।

मेरा हर कर्म शुभ फल ही है लाया ।

नहीं स्वार्थ मुझमें कभी भी है आया ।

मेरा गुंचा - गुंचा उपयोगी कहलाया ।

कंटक में रहा दर्द सहता रहा ।

दर्द मेरा मिटाने कोई भी न आया ।

तोड़ डाली से मुझको, अंत मेरा किया ।

फिर भी मैंने जग-जन सुगंधित किया ।


मेरी अभिलाषा उपवन में रहूं ।

रोज़ खिल मैं उपवन सुगंधित करूं ।

छूट डाली से जब मैं धरा पर गिरूं ।

प्रसन्नचित गौरव का अनुभव करूं ।

उस क्षण तुम उठा लेना माली मुझे ।

और देना मुझे उस पथ पर तुम डाल ।

जहां वीरों के छूटे हों पद के निशान ।

मेरी अभिलाषा का… यही अंतिम पड़ाव ।


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