आईना.....!!!
आईना.....!!!
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खड़ा था आज अपने आईने के सामने,
कुछ लकीरें झलक रही थीं,
मेरा ही चेहरा कुछ कह रहा था मुझसे
ज़रा देख ग़ौर से, क्या रही ख्वाहिश थी।
ले चली वो लकीरें पीछे,
समय से उलट दिशा में,
आ रहा था एक शख्स नज़र वहां
खुश था अपने ही आयाम में।
न कोई डर, न ही कोई फ़िकर,
मलंग था अपनी दुनिया में,
सपने देख रहा वो भी,
जो कभी बसे थे मेरी भी आखों में।
ख्वाब थे एक जैसे हमारे ,
सच करने थे वो सभी
रेशों में बुन कर,
संजोने थे वो सभी।
शायद ज़िम्मेदारियों से अंजान था,
या विश्वास या गुरूर था,
पूरी करने चला था सारी ख़्वाहिशें,
दिल भी उसका मगरूर था।
याद आज भी करता हूँ उस शख्स को,
जिसे छोड़ आया पीछे कहीं,
बस एक सवाल उठा है ज़ेहन मक्या वो मैं था या हूँ मैं अभी।
ें अब,
