तू जन्म ही लेती है बिछड़ने, तड़पने, ज़ुल्म सहने और किसी कोने में बैठ सिसकने के लिए। चल मुस्कुरा कठपुतली मान कर, जन्म ही हुआ है रोने के लिए।
वो मुंह मोड़ने के, इंतजार में थे। और मैं उनके मिजाज बदलने के। बदला तो कुछ भी नहीं, बस अरमां राब्ता हो गये, न तुम मेरे हो सके, न मैं तुम्हें भूल सकी। कमबख्त ख्वाबों में भी वो, दूसरो का ही हाथ थामते रहे। -Suneeta Gond
पति पूरे परिवार के साथ मिलकर पत्नी पर ज़ुल्म करता है। पत्नी अकेले ही अपने सम्मान, की लड़ाई लड़ती है। आश्चर्य तो तब होता है जब, घर की बहूं ही बहूं के खिलाफ, खड़ी होकर षड़यंत्र रचती है।
लाचारी जो साथ होकर भी अजनबी है। जो पास होते हुए भी दूर है। आज तुम भूल चुके हो, मैं तुम्हारी पत्नी हूं, प्रेयसी नहीं, जब तुम्हें पत्नी और प्रेयसी में अन्तर समझ आयेगा, तब बहुत देर हो चुकी होगी। बस मेरे नाम का एक झिलमिलाता तारा आसमान में नजर आयेगा। ******************
आंसूओं जैसी तब्सिरा, इंसान भी नहीं कर सकता। जब-जब शब्दों के नस्तर चुभे, ह्रदय में लगे क्षत पर, मरहम बन सुकून देता रहा। -Suneeta Gond
अपना भी कुछ कायदा है, इश्क, वफादारी और मोहब्बत पर मरने के वायदा हैं। गर इन शर्तों पर जीने से, सिर्फ और सिर्फ जलालत़ को ही फ़ायदा है,
दिल दर्द और मौत के दरमियान आखिर कौन है। मां की लाडली और पिता की शहजादी का गुनहगार कौन है। समाज के बनाए जा दकियानूसी, रिवाजों का जिम्मेदार कौन है। पति के रुप में मिला शैतान, पत्नी पर भारी है। ऐ दहेज तू भी कितनी जालिम है, निगल चुकी आयशा को तू कितनी शक्तिशाली है। तड़पो, चीखों, चिल्लाओं, न्याय की आशा में अब देखे आखिर किसकी बारी है,