anuradha chauhan
Literary Brigadier
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मन के भावों को शब्दों का रूप देती हूँ।

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भाई से बहना कहे,होते नहीं अधीर। हम दोनों है साथ हैं,फिर ये कैसी पीर। फिर यह कैसी पीर,विकट किस्मत का खेला। छूटा घर का साथ,रोक यह आँसू रेला। कहती अनु यह देख,अजब यह विपदा आई। जंगल की यह आग,बुझे अब कैसे भाई। अनुराधा चौहान

धरती धूमिल आज,नहीं है तरुवर छाया। करदी आज उजाड़,यही मानव की माया। कहना सबका मान,रखो हरियाली धरती। रहती शीतल छाँव,सभी के संकट हरती। अनुराधा चौहान

अपने लिए तो सब जीते हैं,कभी औरों के लिए जीकर देखो। अच्छा लगता है। अपने खुशियों में सब खुश होते हैं, औरों को खुश करके देखो। अच्छा लगता है। मत करो तेरा-मेरा,हिल-मिल कर प्यार से रहना परपंरा है हमारी कभी जरूरतमंद को गले लगा,अपना बनाकर देखो। अच्छा लगता है

पिता की छ़ड़ी उस लाल बत्ती की तरह है। जो हर तेज रफ़्तार पर लगाम लगा देती है।।

लौट आओ कि हम अब भी खड़े हैं राहों में, याद कर उन लम्हों को,जो जिए तेरी बाहों में, सुबह के भूले हुए रास्ते पर लौट आ एक बार फिर, भूल जाएं हम सब फिर,जी ले बीती बातों में अनुराधा चौहान

हमसफ़र मेरे जब तू साथ में, जीवन में नहीं कोई आस है, माँगती हूँ तेरी सलामती की दुआ, तू नहीं है तो तेरे लिए यह दिल उदास है।

कभी पास बैठकर हाल तो पूछा होता, कभी साथ चलने का वादा किया होता, कहते तो हरदम यही की तुमसे प्यार है, क्या यही प्यार है तो हमने कभी न किया होता।

साथ सात जन्मों का तुम, निभाने की बात करते हो, चार कदम साथ क्या चले,अब चलने से एतराज करते हो, कहते थे साथ रहेंगे हम, जैसे एक और एक ग्यारह होते हैं यहाँ तो तुम्हारा दिल ही नहीं अपना,बस बहाने बनाते हो अनुराधा चौहान

बहुत कुछ कहना चाहती थी मगर कह न सकी संग चलना चाहती थी मगर चल न सकी वो पत्र जो तुम्हें लिखा था मगर भेज न सकी तुम्हें दूर जाते रही देखती मगर रोक न सकी


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