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खोह

खोह

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फूलों की घाटी के उत्तर की तरफ़ से वह रास्ता जाता था। करीब दस मील चलने के बाद वह खोह थी,

जिसमें महावीर चाचा ने पिताजी को जाते तो देखा था, लेकिन लौटते नहीं देखा। वह पिताजी के

अंतिम दर्शन थे जो उन्होंने किऐ  थे। भीतर जाने के बाद पिताजी लौटे ही नहीं। महावीर चाचा की

हिम्मत खोह में जाने की तो नहीं हुई, लेकिन तीन दिन तक वह वहीं रुके रहे और पिताजी के लौटने

का इंतेज़ार करते रहे। तीन दिन बाद भी जब पिताजी न लौटे और महावीर चाचा का खाने का

सामान करीब-करीब ख़त्म हो गया तो वह यह मानकर कि पिताजी को अछेरियों ने हर लिया है,

वापस लौट आऐ । अछेरियों का हरा हुआ आदमी भी भला कभी वापस लौटा है!

पिताजी घर में कम रहते थे और घूमते ज्यादा थे। पुराने मठों और मंदिरों की खोज में

निकल जाना उनका पुराना शौक़ था। इस काम में महावीर चाचा उनके सहयोगी होते थे। कश्मीर से

लेकर सिक्किम, भूटान और अरुणाचल तक के हिमालय क्षेत्र के कई मंदिरों और मठों की यात्रा वह

कर चुके थे। उन दिनों पिताजी उस गुप्त रास्ते की तलाश में थे, जिससे होते हुऐ बौद्ध भिक्षु भारत

से तिब्बत आते-जाते थे।

उस दिन की भी मुझे हल्की-सी याद है, जब महावीर चाचा आऐ थे और उन्होंने पिताजी के

अछेरियों द्वारा हर लिऐ जाने की बात कही थी। घर में सभी रोने लगे थे। मैं चुपचाप उठकर छत पर

बने कमरे में चला गया था। तब मैंने पहली बार मन ही मन तय किया था कि बड़ा होकर मैं वहाँ

जाऊँगा  और पिताजी को अछेरियों से छुड़ा लाऊँगा ।

फिर जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरा यह निश्चय और मजबूत होता चला गया। अपना यह

निश्चय जब मैंने पहली बार जाहिर किया तो माँ  ने इसे मेरा बचपना समझा लेकिन जब मैंने

किशोरावस्था पार करने के बाद भी अपना यह निश्चय दोहराना न छोड़ा तो माँ  घबराई। उसने मुझे

समझाने की कोशिश की कि अछेरियाँ  जिसे हर लेती हैं, वह उन्हीं के लोक में चला जाता है और फिर

वापस नहीं आ सकता। वह नहीं चाहती थी कि मैं सचमुच अपने पिता की तलाश में निकल पडूँ  और

अछेरियों के हाथ पड़ जाऊँ ।

अछेरियों वाली इस बात पर बचपन में तो मुझे भी यक़ीन  होता था, लेकिन पढ़ने-लिखने के

साथ-साथ इस पर से मेरा यक़ीन  उठता चला गया। पिताजी के गायब होने को लेकर दो-तीन

संभावनाऐं मेरे मन में बन रही थीं। एक तो यही हो सकता है कि पिताजी ने बौद्ध भिक्षुओं वाला वह

गुप्त रास्ता ढूँढ  निकाला हो और अकेले ही उस पर आगे बढ़ गऐ  हों और इस समय तिब्बत के किसी

मठ में रह रहे हों। एक दूसरी संभावना यह बनती थी कि दुर्घटनाग्रस्त होकर वह अपनी स्मरण

शक्ति खो बैठे हों और उसी इलाके के किसी गाँव  में रह रहे हों। एक संभावना यह भी बनती थी कि

खोह में कोई जानवर हो और उसने पिताजी को अपना शिकार बना लिया हो। उस स्थिति में भी

उनका कंकाल तो वहीं होना चाहिऐ ।

उस खोह के बारे में जानकारी सिर्फ़  महावीर चाचा को थी और वह मुझे कुछ भी बताने के

लिऐ  तैयार न थे। माँ  ने उन्हें इसकी कसम दे दी थी। महावीर चाचा के अलावा उस जगह की

जानकारी का एक सूत्र और भी था। पिताजी इस काम के प्रति जितने गंभीर थे, उसे देखते हुऐ  उनकी

डायरियों में उस रास्ते का ज़िक्र  भी ज़रूर  मिलना चाहिऐ ।

पिताजी की इस आदत का पता मुझे था कि वह अपनी यात्राओं का ब्योरा अपनी डायरियों में

ज़रूर  दर्ज करते थे। ऐसी कई डायरियाँ  पिताजी की अलमारी में थीं। डायरियाँ  ज्यादातर हिंदी में ही

थीं। कहीं-कहीं वह अपनी इन डायरियों में अंग्रेजी, संस्कृत या पाली का इस्तेमाल भी कर लिया करते

थे।

सन् 1972 की एक डायरी में उस रास्ते का उल्लेख था। किसी लोसांग लामा का नाम भी

था। लिखा था कि पिताजी को लोसांग लामा ने ही उस रास्ते के बारे में बताया था और अब उसे

ढूँढ ना ही उनके जीवन का उद्देश्य है। इतना और लिखा था कि वह रास्ता जिस खोह से होकर जाता

है, वह ब्रह्मगिरि पर है।

लेकिन... यह ब्रह्मगिरि कहाँ  है, इस सवाल का जवाब उस डायरी में नहीं था। ब्रह्मगिरि की

तलाश भूगोल की किताबों में की, लेकिन वहाँ  इस नाम का कोई पर्वत नहीं था। महावीर चाचा उस

जगह के बारे में कुछ भी बताने में असमर्थ थे। वे अब काफ़ी   बूढ़े हो गऐ  थे और बीमार भी थे।

उनकी स्मृति उनका साथ छोड़ती जा रही थी और फिर उस घटना का कभी उनके सामने ज़िक्र  करो

तो कुछ कहने के बजाऐ   रोने लगते। फिर भी कहीं उम्मीद थी कि मैं कभी न कभी महावीर चाचा से

उस जगह का रास्ता जान ही लूँगा ।

इस बीच महावीर चाचा की मौत हो गई और मुझे लगा कि मेरी इस कठिन यात्रा का

मार्गदर्शक ही चला गया। सारे रास्ते एक-एक कर बंद होते चले गऐ । मैं लगभग निराश ही होता चला

गया।

लेकिन... तभी आशा की एक किरण दिखाई दी।

अखबार में ख़बर  पढ़ी कि धर्मशाला में बौद्धों का एक विश्व सम्मेलन होने जा रहा है। वहाँ

तिब्बत से भी कुछ बौद्ध धर्मगुरु आ रहे हैं। इस मौके को वरदान समझकर मैं भी धर्मशाला के लिऐ

निकल पड़ा। धर्मशाला के पास ही भागसू में मेरे मित्र बल्लभ डोभाल रहते हैं। मैं उन्हीं के पास

पहुँचा । उनकी मदद से मैं कुछ बौद्ध भिक्षुओं से मिलने में सफल भी हो सका। सभी से मैंने उस

मार्ग के बारे में पूछा। सबका यही कहना था कि ऐसे किसी मार्ग का उल्लेख तो ज़रूर  मिलता है,

लेकिन पिछले करीब तीस-पैंतीस बरस से किसी ने उसका उपयोग किया हो, ऐसा सुनने में नहीं

आया। उस रास्ते का इस्तेमाल बंद होने की ठीक-ठीक वजह भी कोई नहीं बता सका। कुछ लोगों का

कहना था कि वह मार्ग दरअसल किसी खोह में से होकर गुज़रता  था और सन् 1860 के दशक में

हिमालय क्षेत्र में आऐ  किसी जबर्दस्त भूकंप में वह बंद हो गया था। वजह जो भी रही हो, लेकिन उस

रास्ते पर किसी के जाने का उल्लेख उसके बाद कहीं नहीं मिलता।

पिताजी की उस यात्रा और इस रास्ते में एक चीज सामान्य थी - एक खोह। यानी पिताजी

बिल्कुल सही रास्ते पर जा रहे थे और उस खोह तक पहुँच  गऐ  थे, लेकिन भूकंप में अगर वह रास्ता

बंद हो गया था तो वह आगे कैसे गऐ ? उन्हें लौट आना चाहिऐ  था। लेकिन वह नहीं लौटे। महावीर

चाचा ने तीन दिन तक वहाँ  उनका इंतेज़ार  किया था।

एक सम्भावना अब भी थी। हो सकता है, पिताजी ने कोई और रास्ता ढूँढ  निकाला हो।

भूकम्प अगर एक रास्ता बन्द कर सकता है तो दूसरा खोल भी सकता है। उस खोह को ढूँढ ने की

लालसा मेरे भीतर और बलवती हो गई थी।

कहाँ  है वह खोह? यही एक सवाल था, जिसका जवाब मेरे पास नहीं था। क्या दुनिया में कोई

ऐसा आदमी होगा, जिसके पास मेरे इस सवाल का जवाब हो?

इस सवाल के जवाब में कई लोगों ने लोसांग लामा का नाम लिया था। 105 बरस की उम्र के

यह लामा उस सम्मेलन में नहीं आऐ  थे, लेकिन सब लोग उनका नाम बड़े आदर से ले रहे थे। आदर

का एक कारण यह भी था कि जब तिब्बत में चीनी फौज ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर प्राचीन

बौद्ध पांडुलिपियों को ख़त्म  कर देने का अभियान चलाया तो लोसांग लामा ने बहुत-सी दुर्लभ

पांडुलिपियों को चोरी से भारत पहुँचा  दिया था। कुछ लोगों का अनुमान है कि वह इन पांडुलिपियों

को उसी गुप्त रास्ते से भारत लाऐ  थे। इस बात से मुझे लगा जैसे मैं मंजिल के बिल्कुल पास पहुँच

गया हूँ । लोसांग लामा का पता भी मिल गया था। वह गंगटोक के पास रूमटेक मठ में रहते थे।

हालाँकि  रूमटेक मठ से आऐ  भिक्षु ज्ञानानंद ने मुझे बताया कि लोसांग लामा अब सिर्फ़

एकांतवास करते हैं, किसी से मिलते नहीं, लेकिन मंजिल के इतना करीब पहुँच ने के बाद मैं इस

छोटी-सी बात पर निराश होने के लिऐ  तैयार नहीं था। मैंने ज्ञानानंद से कहा कि मुझे अपने साथ ले

चले, बाकी काम मैं ख़ुद  कर लूँगा ।

ज्ञानानंद मुझे अपने साथ ले गया। वहाँ  उसने मठ में ही मेरे रहने की व्यवस्था भी कर दी।

उसने मुझे मठ के प्रमुख से भी मिलवा दिया। मठ के प्रमुख ने मेरी बात बड़े ध्यान से सुनी। वह

बहुत आश्वस्त नहीं था कि लोसांग लामा मुझसे मिलने के लिऐ  तैयार हो जाऐंगे । पिछले दस बरस से

वह एकांतवास कर रहे थे और इस दौरान किसी से नहीं मिले थे। प्रमुख ने इतनी अनुमति मुझे ज़रूर

दे दी थी कि मैं उनके कमरे के बाहर तक जा सकूँ  और दिन में केवल एक बार उनसे मिलने के लिऐ

प्रार्थना कर सकूँ । यदि वह दरवाजा खोल देते हैं तो मैं उनसे मिल सकता हूँ , वरना नहीं।

करीब एक महीने तक रोज मैं उनसे प्रार्थना करता रहा कि वह मुझे खोह तक पहुँच ने का

रास्ता भर बता दें, मैं उनसे कोई और सवाल नहीं पूछूँगा , लेकिन उन्होंने दरवाजा नहीं खोला। धीरे-

धीरे मुझे गुस्सा भी आने लगा था कि एक छोटी-सी बात को बताने में लोसांग लामा इतना नखरा

क्यों कर रहे हैं। कभी इच्छा होती कि धक्का देकर उस दरवाजे को तोड़ दूँ  और उन्हें झिंझोड़कर

अपना सवाल पूछूँ , लेकिन फिर ख़ुद  पर नियंत्रण कर लेता।

एक दिन गुस्से में आकर मैंने कह ही दिया कि मैं उनके इस एकांतवास को एक ढोंग मानता

हूँ  और उनके चक्कर किसी श्रद्धा के कारण नहीं लगा रहा हूँ , बल्कि अपने खोए हुऐ  पिता की तलाश

के लिऐ  वहाँ  आया हूँ , जो बीस साल पहले उस खोह के भीतर गऐ  थे और फिर लौटकर नहीं आऐ ।

अपनी बात पूरी करने के बाद मैं जाने ही वाला था कि दरवाजों के चरमराने की आवाज़  सुनाई दी।

दरवाजे के भीतर से एक हाथ निकला और उसने मुझे भीतर आने का इशारा किया। कहाँ  तो

मैं लगभग निराश होकर वापस जाने की सोच रहा था और कहाँ  यह बुलावा। मैं मंत्रमुग्ध-सा भीतर

चला गया।

नीम अँधेरा  कमरा। लकड़ी का फर्श। एक तरफ लोसांग लामा का आसन। दो-तीन दरियां उस

आसन के सामने और दाँऐं- बाँऐं । शायद आगंतुकों के बैठने के लिऐ । जिनका उपयोग पिछले कई बरस

से नहीं हुआ था, लेकिन उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि उनका उपयोग नहीं होता रहा। साफ-

सुथरी थीं। पूरा कमरा ही साफ-सुथरा था। लगता था, लोसांग लामा ख़ुद  उस जगह की सफाई करते

थे। कमरे में एक ही दरवाजा था और कोई खिड़की भी नहीं थी। लेकिन ढलवाँ  छत पर बने एक

गवाक्ष से इतना उजाला ज़रूर  आ रहा था कि अन्दर की चीजें पहचानी जा सकें।

मैं लोसांग लामा के सामने बिछी एक दरी पर बैठ गया। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उनका दायाँ

हाथ अभय में उठा था। अब तक मेरी आँखें कमरे की मद्धिम रौशनी की आदी हो गई थीं। लामा के

चेहरे पर उम्र के लक्षण तो थे, लेकिन एक स्वर्णिम तेज से जैसे वह दीप्त भी था। दाढ़ी-मूँछ थी,

लेकिन बाल इतने कम कि गिने जा सकते थे। सिर घुटा  हुआ। गेरुऐ रंग का तिब्बती लबादा। एक

हाथ में मंत्रसिद्ध चक्र जो लगातार घुमाया जा रहा था।

मेरे पास पूछने के लिऐ  सवाल इतने ज्यादा नहीं थे कि यह सोचने में वक़्त  लगता कि पहले

कौन-सा पूछूँ , लेकिन न जाने क्यों, शायद लामा के अप्रत्याशित बुलावे से या उस वातावरण की

दिव्यता से मेरे होंठ जैसे खुलने से इनकार कर रहे थे। जबान जैसे तालु से चिपकी जा रही थी।

तभी लामा की आवाज़  सुनाई दी। उन्होंने मेरे पिता का नाम लिया था। वह पूछ रहे थे, ‘‘तुम

उन्हीं के बेटे हो न।’’

उन्हें मेरे पिता का नाम कैसे पता चला? मैंने अपने पिता का नाम तो बताया ही नहीं था। तो

क्या लामा अंतर्यामी थे? मंत्रमुग्ध-सा मेरा सिर स्वीकृति में स्वतः ही हिल गया। फिर किसी तरह एक

सवाल मुँह  से निकल गया, ‘‘क्या आप उन्हें जानते थे?’’

‘‘हाँ , वहाँ  जाने से पहले तुम्हारे पिता मेरे पास आऐ  थे और मेरे ही कारण वह वहाँ  गऐ  थे।’’

‘‘आपके कारण? और आपने उनकी कोई खोज ख़बर  भी नहीं ली?’’

‘‘खोज ख़बर ली थी। मैं ख़ुद  गया था। तुम्हारे पिता के साथी महावीरजी ने जब मुझे उनके

गायब होने की बात बताई तो मैं वहाँ  गया।’’

‘‘महावीर चाचा ने तो ऐसी कोई बात हमसे नहीं कही।’’

‘‘उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं था।’’

‘‘लेकिन पिताजी वहाँ  गऐ  ही क्यों थे? और आप उनके वहाँ  जाने का कारण कैसे बने? सब

कहते हैं वह रास्ता सन् 1860 के जमाने के भूकंप के बाद बंद हो गया था।’’ मेरे स्वर में हल्की सही,

तल्ख़ी  आ गई थी। अब तक तो मैं पिताजी के गायब होने की वजह उनकी हठ और उनके साथ घटी

कोई दुर्घटना मान रहा था, लेकिन लामा की बात से तो लग रहा था कि पिताजी सिर्फ़  उनके कहने

पर वहाँ  गऐ  थे। क्या लामा को नहीं मालूम था कि वहाँ  जाने में जोख़िम  है?

लामा का चेहरा निर्विकार बना रहा। अपनी उसी धीमी लेकिन गंभीर आवाज़  में उन्होंने कहा,

‘‘वहाँ  कई रास्ते थे। भूकंप ने तो एक ही रास्ते को बंद किया था। यह ज़रूर  है कि भूकंप के बाद

रास्ते खतरनाक हो गऐ  थे और उधर से आने-जाने की मनाही कर दी गई थी। धीरे-धीरे रास्ते को

जानने वाले अब कम ही लोग रह गऐ  थे। वे भी इसका उपयोग तभी करते, जब बहुत ज़रूरी  होता।

मैं भी सिर्फ़  एक बार उस रास्ते से आया था, जब मुझे तिब्बत से कुछ पांडुलिपियों को छिपाकर यहाँ

लाना था। उस यात्रा के दौरान मुझे कुछ विचित्र अनुभव हुऐ  थे और मुझसे यही गलती हुई कि मैंने

उन अनुभवों के बारे में तुम्हारे पिता को बता दिया। मैं जानता था कि तुम्हारे पिता यह सब सुन लेने

के बाद ख़ुद  को वहाँ  जाने से रोक नहीं पाऐंगे । इसलिऐ  तुम्हारे पिता के वहाँ  जाने के लिऐ  मैं ख़ुद  को

अपराधी मानता हूँ ।’’

‘‘वह क्या अनुभव थे?’’ सवाल ख़ुद -ब- ख़ुद  मेरे मुँह  से निकल गया था।

‘‘बताऊँगा , तुम्हें अवश्य बताऊँगा । वह रास्ता बहुत दूर तक एक खोह से गुज़रता  था, लेकिन

मीलों लंबी उस खोह से गुज़रते  हुऐ  किसी तरह की सीलन या हवा की कमी का तो एहसास नहीं ही

था, बल्कि एक अजीब तरह की ताज़गी  का अनुभव होता था। थकान तो ख़ुद -ब- ख़ुद  मिट जाती थी।

मन के और साथ ही शरीर के विकार भी जैसे स्वतः दूर होने लगते थे।’’

‘‘यह सब कैसे होता था?’’

‘‘यह तो मैं नहीं जानता। इसके बारे में मैंने कहीं पढ़ा या सुना भी नहीं है।’’ अजीब बात है।

एक रहस्य  खुल रहा था तो दूसरा उससे बड़ा सामने आ रहा था। लामा की बात जारी थी, ‘‘तुम्हारे

पिता भी इस रहस्य को समझना चाहते थे, इसलिऐ  वहाँ  चले गऐ । मैं जब उनकी तलाश में वहाँ

पहुँचा  तो मुझे लगा जैसे खोह की दीवारों के पार कोई दूसरी दुनिया है। वहीं से ताजा हवा रिसकर

भीतर आती है और खोह के पूरे वातावरण को ताज़गी  से भर देती है। मैंने बहुत कोशिश की किसी

ऐसे रास्ते की तलाश की, जिससे मैं उस दुनिया के दर्शन कर सकता, लेकिन हर बार मैं लौटकर

अपने पुराने रास्ते पर ही पहुँच  जाता। मुझे लगता है, तुम्हारे पिता को ज़रूर  वह रास्ता मिल गया

होगा और वह उस दुनिया में पहुँच  गऐ  होंगे।’’

इतना कहकर लामा रुके। उनकी नजरें मेरे चेहरे पर टिकी हुई थीं। कुछ ही देर पहले मेरे मन

में लामा के प्रति जो शिकायत पैदा हो गई थी, वह अब दूर हो गई थी। मैंने निश्चयात्मक स्वर में

कहा, ‘मैं वहाँ  जाकर उस दुनिया को भी ढूँढ  निकालूँगा  और अपने पिता को भी। आप सिर्फ़  इतना

बता दीजिऐ  कि वह खोह कहाँ  है।’

लोसांग लामा ने बहुत विस्तार से मुझे उस जगह के बारे में बताया, लेकिन उन्होंने मुझसे

इस बात को किसी को न बताने का वचन भी ले लिया था। उनको दिए वचन को न तोड़ते हुऐ ,

आपकी सुविधा के लिऐ  मैं इतना ही बता सकता हूँ  कि फूलों की घाटी से ऊपर की तरफ दस मील

चलने के बाद वह खोह आती है, लेकिन यह फूलों की घाटी वह नहीं है, जिसे लोग इस नाम से

जानते हैं। मध्य हिमालय क्षेत्र में ही फूलों की ऐसी 24 से भी अधिक घाटियाँ  हैं। इनमें से किस घाटी

की बात हो रही है, यह मैं आपकी नहीं बता सकता। एक सहृदय पाठक होने के नाते आपसे इतनी

उम्मीद ज़रूर  कर सकता हूँ  कि आप अपनी कल्पना की फूलों की घाटी से होते हुऐ  मेरे साथ चल

सकेंगे।

रूमटेक मठ से लौटने के बाद मैंने अपनी यात्रा की तैयारी शुरू की। घर में या मित्रों को इस

बारे में कुछ नहीं बताया। हालाँकि  मैं चाहता था कि मेरा भी ऐसा कोई अंतरंग मित्र होता, जैसे

पिताजी के मित्र महावीर चाचा थे, जो मेरे आह्वान पर बिना कोई शक या सवाल किऐ  मेरे साथ चल

पड़ता, लेकिन ऐसा कोई मित्र था नहीं।

उन्हीं दिनों मैंने एक विज्ञापन पढ़ा। एक युवा संस्था की ओर से ट्रैकिंग का आयोजन किया जा रहा

था। एक रूट लाहोल-स्फीति से पिथौरागढ़ तक का था, जो संयोग से फूलों की उसी घाटी के पास से

होकर गुज़रता  था। मैंने फौरन अपना आवेदन भेज दिया और जल्दी ही वहाँ  से स्वीकृति भी आ गई।

एक हफ्ते बाद यात्रा शुरू होनी थी। यात्रा के ज्यादा विस्तार में न जाकर मैं इतना ही कहूँ गा

कि फूलों की उस घाटी के पास पहुँच कर मैंने अपने ग्रुप लीडर से आग्रह किया कि मैं वहाँ  कुछ दिन

ठहरना चाहता हूँ । हालाँकि  यह नियम विरुद्ध था, लेकिन मैंने अपने ग्रुप लीडर से वादा कर लिया था

कि मैं तीन दिन बाद ही फिर से उनके साथ शामिल हो जाऊँगा । काफ़ी   अनुनय-विनय के बाद ग्रुप

लीडर मान गया था।

वहाँ  से खोह तक पहुँच ने में एक पूरा दिन लग गया। दस मील का यह रास्ता काफ़ी   दुर्गम

था। और फिर एक हफ्ते से रोज 20-25 किलोमीटर चलने के कारण कुछ थकान भी थी। ग्रुप के

साथ चल रहा था तो मन बहला रहता, लेकिन अकेले में यह थकान बहुत भारी लग रही थी। हरारत

भी महसूस हो रही थी। खोह तक पहुँचते-पहुँचते, लगा बुखार बढ़ गया है। इसलिऐ  खोह के बाहर एक

साफ-सुथरी जगह पर टैंट लगाया, बिस्तर बिछाया, पेरासिटामोल की एक गोली पानी के साथ गटकी

और सो गया।

सुबह उठा तो तरोताजा था। बुखार का नामो-निशान नहीं था। टैंट को उसी तरह लगा छोड़कर और

अपना सारा सामान भी वहीं छोड़कर मैं खोह के अंदर चला गया। एक टार्च और कुछ खाने का

सामान ही मैं अपने साथ अंदर ले गया।

खोह के रास्ते का शुरू का हिस्सा तो काफ़ी सीलन भरा था। इसमें भारीपन और उमस थीं,

लेकिन करीब एक या डेढ़ फर्लांग आगे जाने के बाद जैसे पूरा वातावरण ही बदल गया था। हवा में

ताज़गी  और हल्कापन था। हवा की एक हल्की सरसराहट भी थी, लेकिन यह पता नहीं चल पा रहा

था कि यह हवा आ कहाँ  से रही है। मैंने इधर-उधर टॉर्च की रोशनी डाली कि हवा के उस स्रोत का

पता लगा सकूँ । पत्थरों को भी खींचकर निकालने की कोशिश की कि शायद उनके पीछे ही कोई

सूराख दिख जाऐ  । एक बार हवा के इस स्रोत का पता चल जाऐ   तो फिर वहाँ  का रास्ता भी मिल

जाऐ  गा, इसका मुझे पूरा विश्वास था।

काफ़ी   देर तक पत्थरों से टकराने के बाद जब मैं थक गया तो एक जगह बैठकर सुस्ताने

लगा।

एक-दो गहरी साँस  लेने के बाद मुझे लगा कि हवा में एक हल्की-सी सुगंध भी तैर रही है।

धीरे-धीरे मुझे नींद आने लगी। उन क्षणों को अब याद करता हूँ  तो लगता है वह नींद नहीं, बेहोशी

थी।

मुझे नहीं मालूम मैं कब तक बेहोश रहा। होश आया तो देखा कि मैं एक बिस्तर पर लेटा हूँ ।

कमरा छोटा, लेकिन सुरुचिपूर्ण था। तीन-चार लड़कियाँ  पास में बैठी मेरी ओर देख रही थीं।

लड़कियों को अपनी तरफ घूरते पाकर मैं उठकर बैठ गया। चारों लड़कियाँ  बहुत सुंदर थीं।

ऐसा सौंदर्य मैंने कभी देखा नहीं था। जैसे स्वर्ग की अप्सराऐं हों। मन में फौरन एक सवाल उठा, कहीं

ये अछेरियाँ  न हों। गुफा में आने और सो जाने के बाद मैं अचानक यहाँ  कैसे आ गया! ये ज़रूर

अछेरियाँ  होंगी। इन्होंने ही मेरे पिता को हरा होगा। तो क्या मुझे भी इन्होंने हर लिया है?

एक लड़की ने एक गिलास मेरी तरफ बढ़ाया। लाल रंग का शर्बत जैसा कुछ था।

किंकर्तव्यविमूढ़ मैंने हाथ बढ़ाकर गिलास ले लिया। एक घूँट लेते ही लगा जैसे यह शर्बत नहीं अमृत

था। ऐसा अद्वितीय स्वाद जीवन में मैंने पहले कभी नहीं चखा था।

‘‘क्या तुम अछेरियाँ  हो?’’ सवाल मेरे मुँह  से अचानक निकल ही गया। सुनकर वे चारों हँसने

लगीं।

‘‘हाँ , ऐसा ही समझो।’’ जिसने मुझे शर्बत दिया था, उसने कहा।

‘‘क्या तुम लोगों ने मुझे हर लिया है?’’ मेरा दूसरा सवाल था।

‘‘नहीं तो, तुम तो ख़ुद  चलकर हमारे दरवाजे तक आऐ  थे। यह तो अब तुम्हें बताना है कि

तुम यहाँ  क्यों आऐ ।’’ दूसरी लड़की कह रहीं थी। उसके स्वर में अधिकार का भाव पाकर मैंने उसकी

तरफ देखा। उसकी आँखों  में एक अजीब-सा सम्मोहन था। चाह तो मैं यह रहा था कि उस स्वर का

जवाब उसी स्वर में दूँ , लेकिन ऐसा कर नहीं पाया। अपने पिता के गायब होने से लेकर उनकी तलाश

में यहाँ  पहुँच ने तक का पूरा किस्सा सुना दिया।

‘‘आओ, तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलवाती हूँ ।’’ यह मेरे लिऐ  चौंकने वाली बात थी।

‘‘क्या आप उन्हें जानती हैं?’’ अनायास मेरे मुँह  से निकल गया।

‘‘अब और कोई सवाल नहीं।’’

वे चारों उठकर खड़ी हो गई थीं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बिना यह जाने कि मैं

कौन हूँ  और मेरे पिता कौन हैं, ये लड़कियाँ  कैसे कह सकती हैं कि ये मुझे मेरे पिता के पास ले जा

सकती हैं, लेकिन सवाल पूछने की तो मनाही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि इन पर यक़ीन  करूँ

या न करूँ , लेकिन फिलहाल मैं यक़ीन  न करने स्थिति में तो था ही नहीं। इनके कहे को चुपचाप

मान लेना मेरी मजबूरी थी। वैसे भी जब ये कह रही हैं कि मुझे मेरे पिता के पास ले जाऐंगी  तो एक

बार यह जान लेने में हर्ज ही क्या है कि कि ये किसे मेरा पिता समझ रही हैं।

पहाड़ की ढलान पर वह छोटा-सा घर था, जहाँ  से हम बाहर निकले थे। कुछ दूर तक ढलवाँ

रास्ते पर चलने के बाद हम समतल पर आ गऐ  थे। मैंने देखा कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर उसी तरह के

घर बने थे। हर घर के आगे छोटा-सा आँगन  था। पूरा वातावरण हरा-भरा था।

एक घर के आगे रुककर उन्होंने मेरे पिता का नाम पुकारा। एक नौजवान बाहर निकला। उम्र

रही होगी, यही करीब तीस बरस की। पास आया तो मैंने पहचाना, उसकी शक़्ल  मेरे पिताजी की

शक़्ल  से बहुत मिलती थी। पिताजी की शक़्ल  यों तो अब मुझे बिल्कुल याद नहीं थी, लेकिन घर में

उनका एक फोटो था, जिसके आधार पर मैं यह बात इतने विश्वास से कह सकता था।

उस युवक ने मेरी ओर आश्चर्य से देखा, फिर मेरा नाम लेते हुऐ  पूछा, ‘‘यही है न तुम्हारा

नाम?’’

मुझे आश्चर्य हुआ, भला इसे मेरा नाम कैसे पता! एक शंका मन में यह पैदा हुई कि कहीं

पिताजी ने यहाँ  आकर दूसरी शादी न कर ली हो और यह नौजवान जो इस समय मेरे सामने खड़ा है,

मेरा सौतेला भाई हो, लेकिन ऐसा होता तो वह मुझसे छोटा होता। यह तो उम्र में मुझसे बड़ा दिख

रहा था। मैं अभी 25 का ही था जबकि यह तीस के करीब तो था ही। मेरी इस चिंतन धारा को

उसकी कही हुई एक बात ने बीच ही में रोक दिया। वह कह रहा था, ‘‘मैं ही तुम्हारा पिता हूँ ।’’

‘‘आप?’’ मैं उसकी बात पर यक़ीन  करने के लिऐ  तैयार नहीं था।

‘‘तुम्हारी माँ  अब कैसी है?’’ उसने पूछा तो मैं माँ  के अधेड़ चेहरे और ढलते शरीर के साथ

इस आदमी की जोड़ी की कल्पना करने लगा और फिर ख़ुद  ही मुझे उस कल्पना पर शर्म आने लगी।

‘‘माँ  तो ठीक है लेकिन, आप मेरे पिता कैसे हो सकते हैं? आपकी उम्र तो मुझसे कुछ ही

ज्यादा होगी।’’ सवाल मेरे मुँह  पर आ ही गया।

‘‘उम्र... हाँ , जहाँ  से तुम आऐ  हो, वहाँ  उम्र बढ़ती है। यहाँ  उम्र नहीं बढ़ती। अंदर आओ, मैं

तुम्हें सब समझा दूँगा।’’

मैं चुपचाप उनके साथ भीतर चला गया। यह कमरा भी लगभग वैसा ही था, जैसा मैं पहले

देख चुका था।

भीतर पहुँच कर उन्होंने एक आसन देकर मुझे बैठने का इशारा किया और फलों की एक

टोकरी मेरे सामने रखते हुऐ  कहा, ‘‘कुछ खा लो। तुम्हें भूख लगी होगी।’’

मुझे याद आया कि मैं अपने साथ बिस्किट और खाने की कुछ डिब्बाबंद चीजें लाया था। वह

शायद खोह में ही छूट गऐ  थे। अब तक भूख भी लग आई थी। पहले मैंने एक सेब उठाया। काटने के

लिऐ  चाकू तलाश करने लगा, लेकिन टोकरी में चाकू नहीं था। अब तक पिताजी ने भी एक सेब उठा

लिया था और बिना काटे सीधे खाने लगे थे। मैंने भी सेब ऐसे ही खाना शुरू कर दिया। एक सेब, दो

केले और थोड़े से अंगूर। इतने से ही मेरा पेट भर गया। फल सामान्य आकार से बड़े थे और स्वाद

इतना मधुर कि ऐसा मैंने इससे पहले कभी नहीं चखा था।

हम दोनों खा चुके तो पिताजी ने टोकरी दूसरे कमरे में ले जाकर रख दी और वापस अपनी

जगह पर आकर बैठ गऐ ।

‘‘अब पूछो, तुम क्या पूछना चाहते हो?’’

सवाल तो मेरे दिमाग में बहुत सारे घूम रहे थे, लेकिन यह तय नहीं कर पा रहा था कि

सवालों का सिलसिला कहाँ  से शुरू करूँ । फिर भी कहीं से तो बात शुरू करनी थी।

सबसे पहले तो मैं यह जानना चाहता था कि वे यहाँ  पहुँचे  कैसे और अगर पहुँच  ही गऐ  थे

तो महावीर चाचा को भी क्यों नहीं ले आऐ । और बाद में हम लोगों की कोई खोज-ख़बर  क्यों नहीं

ली।

किस्सा काफ़ी   लंबा था, लेकिन संक्षेप में इतना ही बताया जा सकता है कि वे भी लगभग

उसी तरह यहाँ  पहुँचे , जैसे मैं पहुँचा  था। महावीर चाचा को लेकर इसलिऐ  नहीं आऐ  क्योंकि यहाँ

पहुँच ने के बाद और यहाँ  का सब कुछ देख लेने के बाद उनके भीतर से हर तरह का मोह ख़त्म  हो

गया था। महावीर चाचा अंदर आने की हिम्मत नहीं कर रहे थे, इसलिऐ  बाहर ही रह गऐ  और

परिवार का उनके जीवन में कोई अर्थ नहीं रह गया था, इसलिऐ  हमारी कोई खोज-ख़बर  लेने की

ज़रूर त उन्होंने महसूस ही नहीं की।

‘‘यह कौन-सी जगह है?’’

‘‘यह स्वर्ग है। हाँ , यही नाम दिया है तुम्हारे लोक के लोगों ने इस जगह का। पांडवों के

स्वर्गाराहण के बारे में तो तुम जानते ही होंगे। वे यहीं आना चाहते थे। ऋषि-मुनि भी तपस्या करने

के लिऐ  हिमालय पर जाते थे और अपने लिऐ  स्वर्ग का रास्ता बनाते थे। वे भी दरअसल इसी जगह

की तलाश में रहते थे। एक गलत धारणा यह है कि मरने के बाद ही स्वर्ग मिलता है। मरने के बाद

तो इंसान के लिऐ  सब ख़त्म  हो जाता है। स्वर्ग तो लोग मरने से पहले तलाश करते हैं, क्योंकि

स्वर्ग ही एक ऐसी जगह है जहाँ  मौत नहीं है।’’

‘‘मौत नहीं है? प्रकृति का जो सबसे बड़ा सत्य है - मौत, वह यहाँ  नहीं है तो क्या यह जगह

प्रकृति से परे है? प्रकृति के नियमों से बाहर है?’’

‘‘नहीं, बल्कि यहाँ  प्रकृति अपने निर्मलतम रूप में है। तुम लोग जहाँ  रहते हो और जिसे

संसार कहते हो, वहाँ  अपनी सुख-सुविधा के लिऐ  प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करते हो। इस छेड़-छाड़ के

बदले तुम्हें मिलते हैं रोग। जिन्हें तुम उम्र का बढ़ना, बुढ़ापा और मौत के नाम से जानते हो, वह भी

एक तरह के रोग ही हैं।’’

‘‘मैं समझा नहीं। समय के साथ तो उम्र बढ़ती ही है। बचपन, यौवन, प्रौढ़ावस्था, बुढ़ापा, फिर

मौत... यह सब तो एक क्रम है जो समय के साथ चलता है। क्या यहाँ  समय नहीं चलता?’’

‘‘समय क्यों नहीं चलता! समय का चलना तो पृथ्वी, सूर्य तथा अन्य ग्रहों, नक्षत्रों की गति के

कारण होता है। वह तो होगा ही। दिन और रात भी वैसे ही होते हैं, लेकिन इस सबका प्रभाव हमारे

शरीर पर नहीं पड़ता। हमारा शरीर वैसा ही युवा बना रहता है।’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘वही समझाने की कोशिश तो मैं कर रहा हूँ । हमारा शरीर ऊतकों से बना है। पुराने ऊतकों के

ख़त्म  होने और नऐ  उतकों के बनने की क्रिया शरीर में निरंतर चलती रहती है। बचपन में नऐ  उतक

बनने की गति ज्यादा होती है और पुराने उतकों के ख़त्म  होने की गति कम होती है, इसलिऐ  शरीर

बढ़ता है। युवावस्था में इन दोनों प्रक्रियाओं की गति बराबर हो जाती है। फिर प्रौढ़ावस्था और बुढ़ापे

में उतकों के ख़त्म  होने की गति पैदा होने की गति के मुकाबले ज्यादा होने लगती है तो शरीर

कमज़ोर   होने लगता है। तब वह बाहरी रोगाणुओं के हमलों को झेलने में उतना समर्थ नहीं रहता और

एक दिन आदमी की मौत हो जाती है। हमारे इस स्वर्ग में पुराने उतकों के ख़त्म  होने और नऐ  उतकों

के बनने की प्रक्रिया में एक संतुलन बना रहता है। इसलिऐ  हमारी उम्र नहीं बढ़ती। हम एक ही उम्र

पर स्थिर बने रहते हैं।’’

‘‘मेरा सवाल अब भी वही है। समय के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तन आपके इस लोक में

अप्रभावी क्यों रहते हैं?’’

‘‘इसलिऐ  कि प्रकृति इस काम में हमारी मदद करती है। वहाँ  तुम प्रकृति का दोहन करते हो,

यहाँ  हम प्रकृति से दान लेते हैं। प्रकृति जो कुछ स्वेच्छा से देती है, वही हम लेते हैं। पेड़ से फल को

हम तभी तोड़ते हैं, जब वह पक जाता है। पानी लेने के लिऐ  हम जमीन को खोदते नहीँ हैं। चश्मे या

झरने के रूप में प्रकृति जहाँ  ख़ुद  पानी उपलब्ध कराती है, वहीं से हम पानी लेते हैं।’’

‘‘आप बता रहे थे कि यहाँ मौत नहीं होती। फिर तो यहाँ  की जनसंख्या लगातार बढ़ रही

होगी। तब एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब ये सब चीजें आपके लिऐ  कम पड़ने लगेंगी। उस दिन

आपको भी वह सब करना पड़ेगा जिसे आप प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करना कह रहे हैं।’’

‘‘नहीं, यहाँ  जनसंख्या न घटती है और न बढ़ती है। यहाँ  न मौत होती है और न जन्म। यहाँ

जो लोग हैं, हमेशा से वही थे और हमेशा वही रहेंगे। कभी-कभी सदियों में हम तुम जैसे एक-दो लोग

आते हैं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।’’

‘‘मौत न आने की बात तो ठीक है, लेकिन जन्म न होने की बात समझ में नहीं आई। क्या

यहाँ  की सब औरतें बाँझ हैं?’’ सवाल पूछते हुऐ  मेरी आँखों  के सामने उन लड़कियों के चेहरे घूम गऐ

जो मुझे यहाँ  लेकर आई थीं।

‘‘एक तरह से बांझ कह सकते हो। प्रकृति अपना संतुलन बनाऐ रखना जानती है। तुम्हारे

लोक में मौत की व्यवस्था है तो उसके संतुलन के लिऐ  जन्म की व्यवस्था भी रखी गई है। यहाँ

चूँकि मौत नहीं है इसलिऐ  जन्म की भी कोई आवश्यकता नहीं है। संतान पैदा करने जैसा यहाँ  कुछ

नहीं होता।’’

‘‘फिर तो औरत और मर्द होने की ज़रूरत भी नहीं थी।’’

‘‘नहीं, शरीर धर्म के लिऐ  वह ज़रूरी  है इसलिऐ  वह व्यवस्था प्रकृति ने यहाँ  रखी है। हाँ ,

तुम्हारे लोक की तरह यहाँ  औरत और मर्द के बीच शादी जैसा कोई बंधन नहीं होता। यहाँ  औरत

औरत के रूप में स्वतंत्र है और मर्द मर्द के रूप में। कोई भी मर्द और कोई भी औरत परस्पर

सहमति से कभी भी एक-दूसरे के साथ शारीरिक सुख बाँट सकते हैं। यहाँ  किसी का कुछ नहीं है

इसलिऐ  सब कुछ सभी का है। और... जब सब सबका है तो उसे बाँटा भी जा सकता है।’’

अजीब व्यवस्था थी। अच्छा भी लगा कि हमारे लोक की तरह यहाँ  कोई आपा-धापी और

छीना-झपटी नहीं थी। सब सुख और चैन से थे।

लेकिन... शायद नहीं, सुख तो दुःख का विलोम होता है, यानी जब यहाँ  दुःख है ही नहीं तो

सुख का भी कोई अर्थ नहीं है। सब कुछ एक जैसा। कहीं कोई बदलाव नहीं। रोज वही-वही लोग, वही-

वही शक्लें, वही-वही जगहें, एक जैसी दिनचर्या। मुझे तो इसकी कल्पना से ही ऊब होने लगी थी।

‘‘क्या आप इस सबसे ऊब नहीं जाते?’’

‘‘ऊब क्या होती है?’’

‘‘ऊब... यानी रोज वही सब, उसी तरह से, उन्हीं लोगों के बीच। लगातार एकरसता की

अनुभूति। नया कुछ होता ही नहीं।’’

‘‘ऊब क्यों होगी? यही तो ज़िंदगी  है। यहाँ  हम ज़िंदगी  को पूरी तरह से जीते हैं। इसी सुख की

कल्पना तो तुम लोग अपने लोक में करते हो।’’

मेरे मुँह  से अचानक निकल गया, ‘‘नहीं, यह ज़िंदगी  नहीं, मौत है।’’ यह मैं ख़ुद  नहीं समझ

पाया कि ये शब्द मेरे मुँह  में कहाँ  से आ गऐ , लेकिन यह सब कहने के बाद लगा जैसे एक गुत्थी

सुलझ गई है। मैंने अपनी बात जारी रखते हुऐ  कहा, ‘‘ज़िंदगी  लगातार आगे बढ़ने का नाम है। चीजों

के बदलते रहने का नाम है, लेकिन जब यहाँ  कभी कुछ बदलता ही नहीं है तो फिर आप इसे जीवन

कैसे कह सकते हैं। इस ठहराव को मौत के अलावा और कुछ कह ही क्या सकते हंै।’’

पहली बार मैंने पिताजी के चेहरे पर दुविधा की झलक देखी। उनकी आवाज़  कुछ ऊँची  हो गई

थी, ‘‘यह मौत नहीं, जीवन की चरम परिणति है। यहाँ  आकर जीवन अपनी परमावस्था में पहुँच  जाता

है। इसे तुम मुक्ति कह सकते हो। हर तरह के संघर्ष से मुक्ति, हर तरह की कामना से मुक्ति। जो

चाहिऐ , वह तुम्हारे लिऐ सहज उपलब्ध है। तुम्हारी सारी लड़ाई क्या इसी अवस्था तक पहुँच ने के

लिऐ  नहीं है?’’

‘‘हाँ , हम लगातार लड़ रहे हैं, जूझ रहे हैं, कुछ पाना चाहते हैं हम, लेकिन यह लड़ाई, यह

कुछ पाने की इच्छा ही तो हमारे लिऐ  जीवन का आधार हैं। हम कुछ पाना चाहते हैं और उसे पाने के

लिऐ  जूझते हैं, एक लक्ष्य देते हैं ख़ुद  को और फिर उस लक्ष्य की सिद्धि के लिऐ  आगे बढ़ते हैं। यह

बढ़ना, यह जूझना ही तो जीवन है और आप जीवन की जिस चरमावस्था की बात कर रहे हैं, उसी

का नाम तो मौत है। जीवन के अंत पर पहुँच कर हमें जो मिलता है, वही तो मौत है। फ़र्क सिर्फ़

इतना है कि वहाँ  मौत शरीर के ख़त्म  हो जाने पर होती है और यहाँ  शरीर के रहते हुऐ  ही होती है।’’

मेरी आवाज़  में तल्ख़ी  आ गई थी।

‘‘यह तो मैं पूछना ही भूल गया कि तुम यहाँ  क्यों आऐ  हो।’’ पिताजी ने बात बदलने के

लिहाज से कहा।

‘‘यहाँ  तो मैं आपको लेने के लिऐ  आया था। घर में सब आपको याद करते हैं। क्या आपको

हमारी याद नहीं आई कभी?’’

हालाँकि  उनकी बात सुनने के बाद मुझे विश्वास हो गया था कि वह यहाँ  इतने सुखी हैं कि

हम लोगों को शायद ही कभी उन्होंने याद किया हो। यह सवाल सिर्फ़  इस उम्मीद में पूछ लिया कि

शायद मेरा मन रखने के लिऐ  झूठ ही कह दें कि हाँ , याद आती थी, लेकिन बिना किसी लिहाज के

उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया, ‘‘नहीं, याद तो उन्हें आती है, जो अतीत में जीते हैं। यहाँ  हम सिर्फ़

वर्तमान में जीते हैं। सच वही है, जो इस समय है। तुम मेरे पुत्र हो या तुम्हारी माँ  मेरी पत्नी, इन

सब रिश्तों का यहाँ  कोई अर्थ नहीं है। तुमसे भी मैं यही कहूँगा कि अपने अतीत को भुला दो और

यहीं रह जाओ। तुम्हारे लिऐ  भी एक घर की व्यवस्था हो जाऐगी।’’

‘‘मैं तो यहाँ  नहीं रह सकता। आप अगर मेरे साथ नहीं चलना चाहते तो मुझे खोह तक पहुँचा

दीजिऐ । मैं चला जाऊँगा ।’’ मैंने निस्पृह भाव से कहा। जिस पिता की तलाश में मैं यहाँ  आया था, वह

यहाँ  नहीं था। यहाँ  जो था, उसे मैं अपना स्वर्गवासी पिता ही कह सकता था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

‘‘तो तुमने तय कर ही लिया है कि वापस जाओगे?’’ अब वह शायद ख़ुद  भी नहीं चाहते थे

कि मैं रुकूँ।

‘‘हाँ ।’’

‘‘तो ठीक है। अब तो रात होने वाली है। अभी सो जाओ। सुबह तुम्हें वापस खोह में पहुँचा

दिया जाऐगा।’’

अब तक शाम ढल आई थी। यात्रा के इस एंटीक्लाइमैक्स ने मन में एक उदासी भर दी थी।

एक अजीब से निरर्थकताबोध ने आ घेरा था। इतना ज़रूर  था कि मन में अब कोई दुविधा नहीं थी।

पिताजी ने बिस्तर बिछा दिया था। मैं लेट गया और आँखें बंद कर लीं। पता नहीं कब आँख

लग गई।

किसी ने झिंझोड़कर जगाया तो आँख  खुली। देखा, ग्रुप लीडर मुझ पर झुका हुआ था और मुझे जगाने

की कोशिश कर रहा था।

‘‘चलिऐ  साहब। आज क्या यहीं रुकने का इरादा है? सब लोग तो नाश्ता भी कर चुके हैं।’’

सब लोग? सब लोग यहाँ  कहाँ  से आ गऐ ? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं तो स्वर्ग में

पिताजी के कमरे में सो रहा था, यहाँ  टैंट में कैसे आ गया?

‘‘आप लोग तो आगे चले गऐ  थे!’’

‘‘हम लोग कहाँ  गऐ  थे? कैसी बातें कर रहे हैं आप? आपको छोड़कर हम कैसे जा सकते थे?’’

मैं बाहर आया। सब लोग मौजूद थे। यह तो फूलों की घाटी के पास की वही जगह थी, जहाँ

दो दिन पहले हमने कैंप लगाया था।

मैं ग्रुप लीडर के पास गया। धीरे-से उससे पूछा, क्या दो दिन से आप लोग यहीं रुके हुऐ  हैं?’

‘‘दो दिन से? आपको आज यह क्या हो गया है? कैसी बहकी हुई बातें कर रहे हैं आप? कल

शाम ही तो हम यहाँ  पहुँचे और अब आगे की यात्रा पर जा रहे हैं। यह दो दिन बीच में कहाँ  से आ

गऐ ?’’

मैंने उसे पूरी बात बताई तो वह हँसने लगा। वह तो यह  भी मानने के लिऐ  तैयार नहीं था

कि मैंने उससे ग्रुप से अलग होने की अनुमति भी ली थी।

किस्सा कोताह यह कि अच्छी-खासी बहस के बाद वह इस बात के लिऐ  तैयार हो गया कि

अगर मैं उसे वह खोह दिखा दूँ  तो वह मेरी पूरी बात मान लेगा। फिर पूरे दो दिन हम आस-पास के

इलाके में घूमते रहे, लेकिन वह खोह कहीं नहीं दिखी।

इसके बाद हालाँकि  मुझे मान लेना चाहिऐ  था कि जो कुछ मैंने देखा, वह सपना था, लेकिन

इसके लिऐ  मैं तैयार नहीं हूँ । और एक वादा आपसे करता हूँ  कि उस खोह की तलाश में मैं फिर

निकलूँगा  और यह प्रमाण लेकर ही लौटूँगा कि वह खोह वहाँ है और उसके परे वह स्वर्ग भी, जहाँ  मेरे

स्वर्गवासी पिता आज भी मौजूद होंगे।

 


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